( रेत के घरोंदे शब्द स्त्री के लिए और लहरे शब्द पुरुष के लिए इस्तमाल किया है )
रेत के घरोंदों की तरह मैं बहती जा रही हूँ
सागर भरा है लहरों से, सभी लहरे मुझे बहाती जा रही है
एक लहर को भी ना आये रहम, क्यों मैं खत्म होती जा रही हूँ?
क्यों ढूंढती हूँ अपना पन इन लहरों में
लहरे तो अपना काम करती जा रही है
चेहरा उदास, मस्तक झुका, हाथ जोड़ा
आँखे भर आई फिर भी लहरों ने मुझे बहा दिया
क्यों किसी को मुझ पर दया नहीं आई
क्यों किसी ने मुझे फिर से नहीं बनाया?
रेत के घरोंदों की तरह मैं बहती जा रही हूँ
– काजल / अर्चना
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