गुरुवार, 9 जुलाई 2015

जब जब स्वप्न जगे तब आना।

जब जब स्वप्न जगे तब आना।

ये सपने भोले अपने हैं
पलकों के पलने डोले हैं
नटखट जीवन के छौने हैं
व्यर्थ जगाकर मत बिखराना
जब जब स्वप्न जगे तब आना।

हर क्षण ये तो पुलक भरे हैं
स्नेह प्यार से पले बढ़े हैं
उर के आँचल में बिखरे हैं
इनको हौले सुधि में लाना
जब जब स्वप्न जगे तब आना।

हर पंख में उड़ान भरी है
जिनमें सुरभित श्वाँस बसी है
चिर बंधन की आस जगी है
इनके प्राणों तुम बस जाना
जब जब स्वप्न जगे तब आना।

कुछ बूँदें हैं शबनम की सी
फूलों पर हों इतराती सी
स्मृतियाँ भी हैं तारों की सी
इनके मोती मत बिखराना
जब जब स्वप्न जगे तब आना।

इनमें स्पंदन है आशा का
अर्क भरा जीवन गाथा का
चिर-साथी सा पहचाना सा
इनको चुम्बन से न चुराना
जब जब स्वप्न जगे तब आना।
—- ——- —- भूपेंद्र कुमार दवे

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