पी ली है आज मैंने मुझे होश है नहीं।
मगर जो होश में हैं वो क्यूँ बेखबर हैं?
तमाम कोशिशें भी गर्म शीशे सी पिघली
राह में ज़िन्दगी भटकी क्यूँ दरबदर है?
एहसासों को मसल के कई ख्वाब सजे
आशियाने के ठिकाने भी क्यूँ बेघर हैं?
थी मेरी भी हस्ती महफूज रखने की
दिल की खातिर दुआ क्यूँ बेअसर है?
कुछ तो थी शख्शियत मेरी चाहत की
जिन नज़रों ने दी ठोकर क्यूँ बे-सबर हैं?
इम्तिहानों से गुजर के भी ईमान कायम है
शख्स वो उतना ही परेशाँ क्यूँ मगर है?
दीवारों पे तो लिखे हैं नाम,दिल ख़ाली है
ऐसे इश्क से तो अच्छा,तन्हा हम अगर हैं।
वैभव”विशेष”
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