सब कहते हमें खाली
हम जमाना समेटे हैं।
पैमाने क्या बुझाते प्यास
हम मयखाना समेटे हैं।
न सूरत देख ठुकराओ
दिल में हैं प्यार की लहरें।
समन्दर भी तो है खारा
मगर खजाना समेटे है।
दोषी किस को ठहराऊँ ?
सभी यहाँ मासूम चेहरे हैं।
हम तो बस उन निगाहों का
निगाहों में शर्माना समेटे हैं।
मुफलिसी में गुजरी शामें
दरारें बारिश में डराती थीं।
पुरानी यादें जुड़ी जिनसे
उजड़ा आशियाना समेटे हैं।
कदम लड़खड़ाने की सजा
खुदा को दे सकेगा कौन?
हम अनजानी एक भूल का
आज भी जुर्माना समेटे हैं।
ऐसा तो अक्सर ही होता है
‘विशेष’ कोई बात नहीं।
तकदीर का ये तकाजा है
अश्कों का नज़राना समेटे हैं।
वैभव”विशेष”
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