स्निग्ध-स्वच्छ-नील-श्याम-धवल,
सूर्य-प्रकाश में सागर-प्रवाह-अविरल,
मानो झिलमिल इन्द्रधनुषी आँचल|
ऊष्म-कणों से सिक्त वादियाँ,
यूं है लगता ओस-कण-सिक्त|
लजवन्ती नारी तन जैसे,
अकुलाया-सा श्वेत-बिंदु-सिक्त|
आसमां तड़प रहा जमीं मिलन को,
मध्य नग-लहरें बलखाती हैं|
प्रिय-मिलन आतुर प्रिया तन पर,
ज्यूँ आवरण-चुनरी लहराती है|
पुष्पलता वृक्ष से लिपटी ऐसे,
नव-जीवन का संचार करे|
प्रकृति कहती बाहें फैलाये,
आओ हम-तुम प्यार करें|
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