इस बार न हाथो में पेंसिल, न ही चांदनी रात थी
तुम कहीं भीड़ में खोयी सी , बस होठों पर एक सच्ची मुस्कान थी
मेरी ख्वाहिशो के अवराक (पन्ने) अभी भी तलाशते हैं तुम्हे
मेरी कलम के हर्फ़ हर सजदे में मांगते है तुम्हे
नादान हैं शायद उन बारिश की बूंदो की तरह,
जो अक्सर गले लग जाती हैं उछलती हुई लहरों से
काश उन्हें बताये कोई कि समुन्दर का कहीं किनारा नहीं होता
फिर उस वे वक्त अलार्म ने मेरे खवाबो का बांध तोड़ दिया
जो मेरे तकिये के नीचे आराम से नींद में सोता है
सामने टेबल पर देखा, तो तुम अब भी मुस्कुरा रही थी पर लोग न थे
शायद तुम्हारे अक्स ने उन डेस्कटॉप के फ़ोल्डर्स को जो ढक दिया था
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