गीत गाती प्रणय के हवा जो चली
रूप बगियन की कलियाँ चटकने लगीं
सुप्त पीड़ायें उर (हृदय) की हरी हो गईं
मन की कुंठाएं तन से बरी हो गईं
प्रेम का कोष मैंने लुटाया न था
कि भावनाओं की गुड़िया परी हो गई
कामनाओं उमंगों के तीव्र ज्वार से
सोन की वो मछरिया तड़पने लगी ||
नेह से नेह का था जो बंधन हुआ
सोने से तपकर ये मन था कुंदन हुआ
घास-फूस की सी ज़िंदगी उलझी घड़ी
स्नेह का निर्झर पाकर था चन्दन हुआ
मन का मरुथल अभी तक तो सींचा न था
गीत पावन बनी लहलहाने लगी ||
शकुंतला तरार
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