कविता। पगडण्डी के उस पार ।।
आज सघन कुहरे में
एकाकी झोपडी , एक घरौंदा
ओझल, गरीबता में रौंदा
फिर ढक गया दुःखों से
सूरज तो निकाला था
धूप भी फैली थी
पगडण्डी के उस पार
भाग्य खेलता खेल
और बचपन भी
कोमल अल्हड़पन भी
ठिठुर रही थी ठण्डक
जले अलावे ,जले पुआल
तपता जीवन
पगडण्डी के उस पार
माँ बर्तन के पास
धो रही आँशू
कटकटाता दाँत
दुकान के चावल का घुन
कुत्ता सहलाता बासी भात
बच्चों को तोडना लकड़ी
पगडण्डी के उस पार
@राम केश मिश्र
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