देख रहा हूं
उसे आते हुए
वो जो गई थी
कभी न आने का शपथ लेकर
एक अनजाने से
एक वीराने से
जहां से था मैं अनभिग
उस जगह पर ,
सोचता रहा था
मैं क्यों न उसे मना लिया
कि मत जा मुझे छोड़कर
या फिर साथ ले चल मुझे
कि साथ हो लूं
आने वाली भावी तनहाईयों को
सहसा एक पल में खो लूं।
परन्तु वह न मानी
न साथ रह सकी
न साथ ले गई
एक छोटे से अहं में
अकेला कर गई।
ंपर मैं पूछता हूं-
सांसों के अटूट धागे को
किसने कब तोड़ा?
मन के संबन्धों में
कौन दरार डाल पाया?
मेरा तो अपना ही मत है
स्नेह भरे संबन्धों को
न ही स्नेह के दुश्मन तोड़ पाए
न ही स्नेह करने वाले दिलों से मिटा पाए
स्नेह की खूबियां,
चाहे तल्खियां कितनी भी बढ़ जाए।
आखिर वही हुआ
मैं देख रहा हूं
फिर उसे आते हुए
मेरे बेकल मन को कल देकर
प्रफुल्लित करने ।
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