कविता।पगडण्डी के उस पार।
पूस की रात
पूस की रात
निशा भरे खर्राटे
बनकर पहरेदार सुने सन्नाटे
कुहरे धुंध की आहट धीरे-धीरे
झुरमुट से चलती कछुआ चाल
हाड़ कपाती ठण्ड कुटिल व्यवहार
पगडण्डी के उस पार ।।
झोपड़ी में सोता वृद्ध
ठिठुरा अलाव,ठण्ड ; तो कैसे?
जर्जर कम्बल जैसे तैसे
टुकुर-टुकुर करती वे आँखे
देख थरथराती वो खाट
फिर से चलने लगी बयार
पगडण्डी के उस पार ।।
सिहरें तन,तन रोम, देखता व्योम
अलसायी रात बदलती करवट
कुहरा हुआ जवान अभी तो तिरसठ
सुन मुर्गे की बाग़ डरा सन्नाटा
कुहरे संग धुंध ,कुहासा ,ओले
छोड़ते निरीहता पर प्रहार
पगडण्डी के उस पार ।।
@राम केश मिश्र
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