सुबह उगना ही है तो शाम को ढलता क्यूँ है,
किस से चाहत है बता सूर्य तू जलता क्यूँ है,
क्या है ख्वाहिश तेरी क्या दूर बहुत मंजिल है,
रोज तू इतनी सुबह घर से निकलता क्यूँ है,
दिल तू कब समझेगा वो हो नहीं सकता तेरा,
तू उसकी चाह में पल-पल यूँ पिघलता क्यूँ है,
सच से वाकिफ हूँ मैं कोई और उसकी चाहत है,
स्वप्न झूठे तू दिखा मुझको यूँ छलता क्यूँ है,
प्यार और दोस्त तो इंसान हैं मौसम तो नहीं,
आये दिन फिर यहाँ इंसान बदलता क्यूँ है,
रिश्ते-जज्बात वफ़ा-प्यार क्या सस्ते हैं बहुत,
पैसे पे लोगों का ईमान फिसलता क्यूँ है,
जो भी बेईमान है, झूठा है, भ्रस्ट लोभी है,
फूल प्रगति का उनके घर पे ही खिलता क्यूँ है,
सब तो मशरूफ हैं जीवन की आपा-धापी में,
‘ओम’ बस एक तू रह-रह के मचलता क्यूँ है,
झूठ-अन्याय के अंधियारे में खुश हैं सारे,
सच की सम्मा तू जला राह पे चलता क्यूँ है !!!
“साथी ”
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