बहारें थम गई फिर से लो मौसम मलिन आया
कलह से क्या मिला तुमको ना मैंने कुछ पाया
जिंदगी चल रही थी जो सब को साथ में लेकर
बिना समझे ही बस तुमने उसको मार दी ठोकर
बड़ी मुश्किल से कोई इस जहाँ में पास आता है
जिससे मिल बैठ के गम छोड़ इंसा मुस्कराता है
मगर तुमको मेरी कोई ख़ुशी अच्छी नहीं लगती
मेरी रुसवाई करने में तुम बिलकुल नहीं थकती
तुम्हारे वार सह सह कर मैं अब तक भी जिन्दा हूँ
कटे पर से जो ना उड़ पाए अब बस वो परिंदा हूँ
मेरे जीवन में जैसे सब ने मिलकर जहर बोया है
मेरा हर रोम रोम छलनी हो बिन आंसू के रोया है.
शिशिर “मधुकर”
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