वो आई थी,
खुशियों की लड़िया संग लायी थी.
मंद-मंद मुस्काई थी,
और अपने संग उमंगों की दुनिया लायी थी.
मैं भी उसके पलकों के तले सोता था,
और उसके गालों पर सैर करता था.
कभी-कभी उसके जुल्फों में छिप जाता था,
और कभी उसकी झील सी आँखों में गोटे लगाता था.
न क्यों वो बिना बताये एक दिन चली गयी,
वो क्या गयी वसंत की बहार चली गयी.
झिळझिळ तारों की सौगात चली गयी,
नरम एवं मुलायम अठखेलियों की हंसी चली गयी.
मैंने तो बड़े सपने सजा लिए थे,
आँखों में तरन्नुम के अहसास पल लिए थे.
रागों की माला गले में धारण कर ली थी,
और पुष्पों के गुच्छे भी अपने शरीर पर चिपका लिए थे.
पर मैं व्यर्थ ही रेगिस्तान में पानी तलाश रहा था,
क्या करूँ मृगमरीचिका देखकर खुश होने की अादत जो थी.
और मैं व्यर्थ ही अधखिले पुष्पों को निहारता था,
क्या करूँ ए स्वराज, अधखिले पुष्प देखने की आदत जो हो गयी थी.
और, एक दिन वो आई !!!
वो आई तब जब मैं खुशियों के दीप कही और जल रहा था,
आशयों की लड़िया कही और सजा रहा था.
पुष्पों के गुच्छे किसी और की कंठ में शोभा बढ़ा रहे थे,
अरमानों के दिए कही और ही जल रहे थे.
उसने माँगा मुझसे अभयदान,
पर मैं दे न सका कोई वरदान.
अब आये हो, जब पतझड़ में पत्ते सुख गए,
भीषण गर्मी में एक बूँद को तरस गया था,
और, बारिश में मुझे तर-बतर करने आये हो.
जब आँखे सूजकर लाल हो गयी,
तब गुलाबजल की कुछ बूंदे लाये हो.
क्या चाँद बूंदे मेरी आँखों की लालिमा दूर कर पायेगी?
क्या तुम्हारे वचन मेरी वेदना से भरी ह्रदय की पीड़ा को दूर कर पायेगी?
और क्या तुम्हारा समर्पण मेरे बेइंतहा ज़ब्त होते दादों की पीड़ा समझ पायेगी?
और, उसकी उमीदों की लड़िया टूट गई,
मन के भाव ताश के पत्ते की तरह बिखर गए,
आँखों की रंगत बेरंग हो गए.
आशाओं के दीपक बुझ गए.
अरमानो के आशियाने टूट गए.
वो बोलती है मैंने दिया उसे चुभन,
क्या करूँ अब मैं न होता था मगन,
बनती न थी किसी तरह की लगन.
और, उसके जीवन में रह गया अब बस ”एक घुटन”.
——— Swaraj Prasad
22th February , 2016
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें