दो घड़ियाँ …
दो घड़ियाँ लेकर चलूँ मशाल
उस अँधेरे को बेबस कर दूँ
जख्म की ताकत हो जितनी
उससे दुगनी मरहम भर दूँ !
दो घड़ियाँ मैं दे दूँ आस
कुछ सपने अभी परेशान है
मेहनत पे लगे सवालों को
कयामत का इंतज़ार है !
दो घड़ियाँ छुपालूँ वक्त से
बिछड़ते साँसों की राहत सुन लूँ
दस्तक देनेवाली उल्फतों से कभी
यादों में कुछ सुकून तो चुन लूँ !
दो घड़ियाँ मैं कर दूँ कुरबान
उन अन्जान गलियों की पहचान बन जाऊँ
उन राहों की उम्मीद बनकर
जुल्मों को बेसहारा कर जाऊँ !
दो घड़ियाँ मैं बनादूँ ख़ास
कुछ जरूरतें जीने के अरमान है
रहे ना भूखा कोई, तन हर किसीका ढका
सर पर छत हो ऎसा कुछ बयान है !
दो घड़ियाँ सीख लूँ जीना
बातों में, इरादों में ठहराव हो सही
रिश्तों की कड़ियाँ होती है नाज़ुक
हर जस्बात का एहसास हो सही !
दो घड़ियाँ कर लूँ सलाम
देश की मिटटी को नाज़ों से छू लूँ
सरहद पर जो पहरे है हज़ार
उन अनगिनत कुरबानियों को दुआओं से छू लूँ !!
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