जिवित है प्राणी
चल रहा धीमें-धीमें
हरदम हरपल चलती है
परछाई उसके पीछें-पीछें
राह कठिन पा जाता है
खुदा को दोषी ठहराता है
जान वचाने की खातिर
वो क्या-क्या खेल रचाता है
अमृत समय मे लाने को
दीक्ष हला विष पीता है
खुद को मानव कहता है
और आगे वढ़ता रहता है।
-:निर्देश कुदेशिया
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें