” माँ ” एक ऐसा शब्द हैं जिसकी व्याख्या नही की सकती और ना ही माँ की ममता को शब्दों में बांधा जा सकता है| इसकी ममता सभी कष्टों से ऊपर होती हैं और यह हर दुःख सहकर भी अपने बच्चे को हमेशा ख़ुश देखना चाहती है,अपने बच्चे की एक खुशी के लिए वो हर दर्द को सह जाती हैं और उस दर्द मे ही उसे अपनी ख़ुशी मिलती हैं | माँ अपने बच्चों के लिए न जाने कितनी तकलीफें उठाती है फ़िर भी हर दम मुस्काती हैं | “माँ ” कहते हैं भगवान हर किसी के पास नहीं जा सकते शायद इसलिए उन्होने औरत को माँ रूप दिया और धरती पर भेजा शायद इसलिये हर माँ में भगवान की छवि होती हैं…!!!
माँ को समर्पित मेरी कविता…!!
“माँ और बचपन”
माँ मुझको वो मंजर आज भी बहुत याद आता है..
तेरी गोद मे गुजरा बचपन आज भी बहुत याद आता है..!!!
मेरी एक किल्कारी पर वो तेरा बार बार बलईयां लेना..!!
मेरे एक रूदन पर तेरा अपनी आंखो का समंदर भर लेना…!!!
मेरे न सोने पर रात – रात जग कर कोमल हांथो का पलना करना..!!
निंद आ जाये जल्दी मुझको अपनी आंचल से पंखा झलना..!!!
माँ तेरी वो ममता की छावं आज भी मुझे बहुत याद आती है…!!
मेरे लड़खड़ाने पर वो तेरा सब काम छोड़ दौड़ आना..!!
गोद मे लेकर अपनी वो तेरा मीठी मीठी लोरी गाना..!!
घर के गलियारों मे कहीं चंचलता से मेरा वो छिप जाना…!!
मुझको न देख वो तेरी आंखों का नम और धड़कन का तेरा पल भर को रूक जाना…!!!
माँ तेरी वो तड़प आज भी मुझे बहुत याद आती है..मुझको वो मंजर बहुत याद आता है..!!!
मेरी बहते नाकों को वो तेरा अपनी आंचल से पोछ देना…!!
“बड़ा सुंदर है लाल तेरा” कहने पर औरों को तुरंत टोक देना…!!!
आज भी याद है मुझे जब मिट्टी से रंगे अंगो को मेरे देख तुम हंस देती थी..!!!
मुझको तो लगा लेती थी गले पर धरती को थोड़ा झिड़क देती थी..!!!
बरसात के बून्दों मे खेलकर जब मै घर आता था…!!
दूर से ही देख मुझे तुम अपनी आंचल फैला देती थी..!!!
सर्दी न लग जाये मुझे ये सोच झट अपने आंचल मे ढक लेती थी.
पर इतने ही देर मे आसमान को ना जाने तुम कितनी बार डपट देती थी..!!!
मानो जैसे कह रही हो तुम..!!
“थोड़ी देर तु और रूक जाता तो तेरा क्या चला जाता कम से कम मेरा बेटा खेल कर सूखा घर वापस तो आ जाता ”
माँ तेरे प्यार की वो तपिष आज भी बहुत याद आती है..
सांझ की आंच पर वो तेरा गरम गरम रोटीयां पकाना..!!!
अपने आंखो के सामने बिठाकर वो तेरा गरम गरम रोटीयां खिलाना.!!
माँ तेरे हांथो की बनी उन रोटीयों की सौन्धी महक आज भी बहुत याद आती है..
वक्त के साथ तु भी बूढि हो गई और मै भी थोड़ा बड़ा हो गया..पर तेरे साथ गुजरा वो मेरा कोमल बचपन ना जाने कहां खो गया.!!
माँ आज मै खुद मे ही खुद के बचपन को खोज रहा हूं..!!
ममता भरे उन पलों को याद कर मैं रोया हर पल हर रोज रहा हूं.!!
भूल न सकुंगा कभी तेरे कर्ज और उन बलिदानों को
हे जननी तुझे नमन है
मुझको इस दुनिया मे लाने को…!!
मुझको इस दुनिया मे लाने को…!!
विनोद कुमार “सिन्हा”
Read Complete Poem/Kavya Here "माँ और बचपन"
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