यहीं कहीं मेरा भी था
एक नीड़……
छोटा सा, तुम्हारे
आशियाने जैसा….
पर ना जाने
किस क्रूर निर्दयी
बाहुबल ने……..
प्रदर्शन किया
मुझ कमजोर पर
अपनी वीरता का……
और………
उच्छिन्न कर दिया….
मेरे निकेतन को……
नहीं
करती मैं माफ़….
कभी उसे आजीवन….
पर
शिष्टता, स्थित-प्रज्ञ
और
पक्षीवत धर्म के
वशीभूत हो……..
रख दिया वापस
हृदय के….
तूण में…….
उन स्त्रापित
शब्द बाणों को……….
रचनाकार—रवि सिंह
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