शुक्रवार, 26 जून 2015

नशा मुक्त हो विश्व।

आज 26 जून विश्व नशा विरोधी दिवस पर
नशा के विरोध में लिखी मेरी कविता।

बदलता दौर है बदलो मगर इतना न बदलो तुम।
शर्म से नज़रें हों बोझिल अभी है वक़्त सम्हलो तुम।

शौक में फूंक दी साँसे छल्लों की नुमाइश में।
धुएं में कैद है धड़कन,मरे जीने की ख्वाहिश में।

ज़िन्दगी में अदाओं के बेहतर और भी सलीके हैं।
नशे के बिना भी हैं खुशियाँ फिर क्यूँ गम लो तुम?

बदलता दौर है बदलो मगर इतना न बदलो तुम।
शर्म से नज़रें हों बोझिल अभी है वक़्त सम्हलो तुम।

माँ-बाप को है गुमाँ की बेटा आसमाँ पे जाएगा।
सच है,पर जरूरी नहीं की जमीं पे लौट आएगा।

नशा लेकर है आता साथ में बस मौत का पैगाम
वक़्त की रफ़्तार तेज है जरा ठहरो,दम लो तुम।

बदलता दौर है बदलो मगर इतना न बदलो तुम।
शर्म से नज़रें हों बोझिल अभी है वक़्त सम्हलो तुम।

पीकर जाम का प्याला वो खुद का नाम भुला बैठे।
पत्नी और बच्चों की गुजरी तन्हा शाम भुला बैठे।

पत्नी के अश्क,चोटों के निशाँ दर्द को कर रहे बयाँ।
होश में रह कर पहुँचो घर जरा इतना तो कम लो तुम।

बदलता दौर है बदलो मगर इतना न बदलो तुम।
शर्म से नज़रें हों बोझिल अभी है वक़्त सम्हलो तुम।

आईने में देखकर गले हुए गाल ,पछताने से क्या होगा?
जो लौटकर आने में बहुत देर हुई तो आने से क्या होगा?

निवालों के लिए तरसे हुआ मुँह भी खोलना मुश्किल।
क्यूँ जिन्दा होते हुए,अपनी ही मौत का मातम लो तुम।

बदलता दौर है बदलो मगर इतना न बदलो तुम।
शर्म से नज़रें हों बोझिल अभी है वक़्त सम्हलो तुम।

वैभव”विशेष”

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