सारे षब्द क्यों छूछे लग रहे हैं
  क्यों सारी भावनाएं उधार सी लग रही हैं
  सेचता हूं तुम्हारे लिए कोई टटका षब्द दूं
  उसी षब्द से पुकारूं
  मगर सारे षब्द उधर के क्यों जान पड़ते हैं।
  जब भी तुम को चाहा कहना
  कि अच्छी लगती हो
  तभी सब के सब उधार के षब्द
  मंुह चिढ़ाने लगते हैं
  कहते हैं ये तो फलां ने भी कहा था
  कुछ नया कहो
  कुछ तो नवीनता हो।
  घंटों षब्दों की मंड़ी तो बौराया फिरता हूं
  झाड़ पोछ कर कोई चुन लेता हूं
  तभी बगल में खड़ा कोई दूसरा षब्द कहने लगता है
  अरे जनबा मुझे ले चलो
  मुझे इस्माल करो
  फिर देखो
  कैसे रूठे भी गले लग जाएंगे।
  जैसे ही षब्द को घर लाता हूं
  पास खड़ी मुंह बिराती चुगली करती है
  अरे इसे तो फलां कवि ने जूठा कर दिया था
  तुम तो जूठन ही खाया करो
  अपनी भी जबान हिला लिया करो
  कभी तो नवीन बातें
  नई षैली में कहा करो।
  कभी कालिदास तो
  कभी मिल्टन
  कभी कभार भटकते हुए पहुंच जाता हूं
  आधुनिक कवि के पास
  लेकिन वो भी निकला खाली का खाली
  उसके पास भी छूछे षब्द ही मिले
  वापस थक हार कर कहता हूं
  तुम बेहद नव्य हो
  नूतन हो
  हमरे पास रहो ऐ गोइया
  हमरे पास
  आंधी बुनी
  उंच नीच में
  हमरे पास रह ए गोईया।
गुरुवार, 25 जून 2015
षब्द क्यों छूछे लग रहे
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