सोमवार, 29 फ़रवरी 2016

काश मैं कवि होता

काश मैं कवि होता
स्वचंद पंखी ओ आकाश में
मैं विहग वान हजारो गढता
किसी सुंदरी की जुल्फो मैं
कभि सोता कभि खोता
काश मैं कवि होता
नित नयी कल्पना के पंख लगा
अंबर मे मैं भि उड़ता
नव पल्लव तरू की डाली
पे मैं भि कोयल सि गाता
काश मैं कवी होता
कही छुपी सायरी को बनाता
अकेले बैठे गुनगुनाता
कई अनकही बाते बताता
कई सुर ताल मिलाता
काश मैं कवि होता
बेर ओर बसंत को मिलाके
नई नई ऋतु बनाता
उनमे तुझको बुलाता
सपनो सा सजता
काश मैं कवि होता
कयी बातें अनकहि
उनसे राज खोल पाता
नयनों की भाषा तेरी
दिल में हि सुनाता
काश मैं कवि होता
आसमान पे लिखता
तेरा नाम बादलों से
प्यार से तेरे भिंग
फिर बरस पड़ता
काश मैं कवि होता
एक पल में हज़ारो
सदियां जीता जाता
ओर कयी सदियां
शब्दों में सजाता
काश मैं कवि होता

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