छोटी छोटी आँखो से दुनियाँ देखने लगा ।
  छोटे हाथों से उँगलियाँ पकड़ ने लगा ।
  मेरे कदम और भी मज़बूत हो गये  ,
  माँ का हाथ पकड़ के जब चलने लगा ।
मेरे कदम अकेले ही संभल ने लगे ।
  जब अपने ही पेरौ पर चलने लगे ।
  माँ मेरी स्कूल रखने फिर भी आई ,
  जब खुद ही बेग अपना उठाने लगे ।
मुझको पढाया लिखाया आदमी बनाया ।
  दुसरो के काम आ सके वो इंसान बनाया ।
  जब जब मूझसे कोई गलती हो जाती ,
  गले से लगा कर प्यार से समझाया ।
वक्त की रेत माँ से दुर करने लगी ।
  जबसे बीवी मेरा डिब्बा बनाने लगी ।
  बीवी का नमकीन सा बना खाना खाया तो ,
  माँ के हाथों की बनी रोटी याद आने लगी ।
वक्त सारा ऑफीस मे लगा रेहता था ।
  माँ का तावीज गले मे ही रहा करता था ।
  मैं लौट कर जब तक घर ना आ जाऊ ,
  माँ का सर सज़दे मे ही पडा रेहता था ।
पत्नि की आँखो मे चुभने लगी मेरी माँ ।
  केहती हे की तंग करने लगी तेरी माँ ।
  माँ को मेरे सर का बोज समझने लगा ,
  तो केह दिया मेने अपने घर जा तु माँ ।
जवानी अब बुढापे मे बदल ने लगी ।
  मुझको भी मेरी माँ की उम्र लगने लगी ।
  जब पुरी जवानी ढल गई बुढापे मे ,
  मेरी औलाद भी अंदाज़ बदल ने लगी ।
मेरे बच्चे मुजे एसे तड़पाने लगे ।
  माँ के साथ किये सुलूक याद आने लगे ।
  मेरी कोई बात नही सुनी उन्होने ,
  मुझको भी मेरी माँ के घर ले जाने लगे ।
माँ ने जब देखा तो मुझपे रहम आया ।
  उसने कहा के लो मेरा बेटा लौट आया ।
  माँ की आँखों से निकले ईस तरहा आँसु ,
  आँखों मे जेसे मेरा बचपन भर आया ।
                               -एझाझ अहमद

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