शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

जलते हुए दील को बुझाये भी तो कैसे ?

जलते हुए दील को बुझाये भी तो कैसे ?
मलबे से फीर घर बनाये भी तो कैसे ?
अाँखो से आँसु बेवकत बेहते रेहते है
होटो पे मुसकुराहट सजाये भी तो कैसे ?
बदन का हर कोना जखमो से भरा है
अपनो के दीये जखम दीखाये भी तो कैसे ?
जुदा होना है उससे ये नही केह पाते है
उसके फुल से चेहरे को रुलाये भी तो कैसे ?
दुशमन को दोसत बनाने को जी चाहते है
पर माझी की तसवीर भुल जाये भी तो कैैसे ?
हमे मंजिल अपनी अब तक मीली नहि है
जाके छावँ मे बेठ जाये भी तो कैसे ?
उसने मीलने का वादा पुरा नहि किया है
वो बिन मीले मुझसे मर जाये भी तो कैसे ?
-एझाझ अहमद

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