ये बातें पुरानी तो नहीं,
  पर वक़्त की धूल जम गयी है उन पर,
  एक कच्चा-पक्का स्कूल – पहाड़ों के बीच,
  और पीपल की कोपलों से भरा पेड़,
  जिसकी छाँव में खेलते थे बच्चे,
  और पकड़ते थे भटभटिया कीड़ा.
थमा सा वक़्त,
  जैसे  सदियाँ समेटे – हर लम्हा,
  कहाँ जा रहे थे, मैं, तुम और हम सभी ?
  कहीं भी तो नहीं – शायद कहीं नहीं,
  बस उस लम्हे की पोर पोर को –
  छूते, जीते,
  धड़कन, धड़कन. 

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