ये कविता उन लोगो को समर्पित है जो बिना बात के कथित आंदोलनों में हुई हिंसा के शिकार हो जाते हैं….
रेत का आँचल ओढ़ आयी है, ज़िन्दगी कैसा मोड़ लायी है,
  तिनका तिनका कर घर बनाया था-२
  तिनका तिनका कर तोड़ लायी है,
  रेत का आँचल ओढ़ आयी है, ज़िन्दगी कैसा मोड़ लायी है। 
भेष में इन्शाँ, के छुपा करके-२,
  भीड़ शैतानों की जोड़ लायी है,
  रेत का आँचल ओढ़ आयी है, ज़िन्दगी कैसा मोड़ लायी है। 
 है बना दुश्मन इन्शाँ इन्शाँ का-२,
   जाने कैसी ये होड़ लायी है,
   रेत का आँचल ओढ़ आयी है, ज़िन्दगी कैसा मोड़ लायी है
हमको ज़िंदा ही दफ्न कर डाला-२ ,
  ज़ज़्बा इंशानी कहीं पे छोड़ आई है,
  रेत का आँचल ओढ़ आयी है, ज़िन्दगी कैसा मोड़ लायी है। 
मौत से मिलकर हमें थोड़ा सुकूँ तो है-२,
  ज़िन्दगी वैसे भी हमको कब सुहाई है,
  रेत का आँचल ओढ़ आयी है, ज़िन्दगी कैसा मोड़ लायी है। 

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