गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

तुम्हारे समंदर को मीठा बना दूं

09082014556
तुम्हारे समंदर को मीठा बना दूं
घोल कर प्रीत की ढली
उलीच डालूं तुम्हारे खारेपन,
भर दूं आकंठ
मुहब्बत की तासीर
तुम्हारे खालीपन में बो दूं दूब संगी की
रात रात भर परेशां घूमने वाले परिंदों को
दिखा दूं राह
मुकम्मल कोई
चाहता हूं
कई बार
भर दूं तुम्हारे सूनपन में गीत प्रीत की।
पर कैसे
गा सकता हूं
कोई गीत सोहर के
या फिर मानर
कोई हल्दी के गीत
या फिर परिछन के राग।
कंठ में ही घूं घूं करते
दब जाते हैं
जब भी मुंह खोलता हूं
हजारों हजार चीखें
मक्खी की तरह भिन भिनाने लगती हैं
मुंह बंद कर कुंभक करने लगता हूं
चाहता तो हूं
तुम्हारे जिंदगी के खारेपन को मीठी डली में सान कर थाप दूं उपले।
जब सूख जाएं
लगा दूं आग
तुम्हारे खारेपन में
ताप लूं
तुम्हारी सारी नीरवता।
रात बिरात जो तुम तटों पर करवटें बदल कर परेशां होती हो
चाहता हूं,
कूल विहीन कर दूं
पर कहां संभव है
समंदर को मीठा कर पाना
लहरों को
समझाना कि इतना भी परेशां करना ठीक नहीं।
मैं लगा हूं
समंदर से बात करने में
फुसला रहा हूं उसे
कभी सीखे नदियों से कल कल बहना
मंथर गति से आगे निकल जाना
कूलों से टकराना
अंत में तुम्हीं में मिल जाना
सीखे तेरा खारा समंदर।

Share Button
Read Complete Poem/Kavya Here तुम्हारे समंदर को मीठा बना दूं

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें