क्या बोया, क्या पाया, क्या खोया…?
  बहुत कुछ बोया, बहुत कुछ पाया, बहुत कुछ खोया.!
  अब जब बीत गयी ज़िन्दगी तीन चौथाई, फिर भी समझ नहीं पाता
  क्या कुछ बोया,क्या कुछ पाया,क्या कुछ खोया ?
बचपन खो गया, जवानी के इंतज़ार में?
  जवानी खो गयी, सब कुछ पा लेने की आस में?
  और आज……?
  खड़ा हूँ उम्र की उस दहलीज़ पे, जिसे सब बुढापा कहते हैं ..!
  पीछे मुड़ कर जब भी देखता हूँ,आती और जाती रहती है ..!
  एक एक तस्वीर मानस पटल पे, पर,कुछ भी ठहर नहीं पाता.!
और फिर……..?
  मैं रह जाता हूँ,  अकेला, उसी चिंतन में  ..!
  क्या बोया, क्या पाया, क्या खोया.?
अजीब सी विडिम्बिना  है ? नियति आखिर क्या है इस ज़िन्दगी की ?
  धन, दौलत, यश, नाम, प्रसिद्धी, पर इनका तो कोई अंत नहीं ?
  बार बार यक्ष की तरह वही प्रश्न  कुदेरता रहता है..?
  क्या बोया, क्या पाया, क्या खोया…………….?
तो फिर ………….?
  बंद मुठ्ठी आया था अकेला इस संसार में,
  खाली हाथ पसारे जाऊंगा अकेला इस संसार से,
  अब तो यही लगता है, सब कुछ पाया, बस खोने को ?
पर ईश्वर……………..?
  वह तो विद्यमान था सदैव हमारे ही अंदर
  क्यों देर कर दी उसे पहचानने में,क्यों तलाश कर नहीं सका सारी ज़िन्दगी …………..!
  भटकता रहा, फिर भी जान न पाया अपने ही अंदर के विद्यमान ईश्वर को………..!
और अब
  इस बची हुई एक चौथाई ज़िन्दगी में?
  तलाश करने की कोशिश करता हूँ उसे?
पर
  अब यह शरीर साथ नहीं देता………!
  यह तो बूढा हो गया है ………….!
  रहता है ग्रसित हर वक्त  किसी न किसी बीमारियों से….!
  किसी न किसी  दर्द से घिरा रहता है ये शरीर ?
  या यूं कहें की दर्द ही अब ज़िन्दगी बन कर रह गयी गयी है.!
बस ईश्वर को पा लूँ, यही चाहत और इच्छा है प्रवल मेरी
  ध्यान लगाने की, तलाश करने की कोशिश हर वक्त करता हूँ..!
  पा लेने को आपमे अंदर विद्यमान उस ईश्वर को,
  जो हमारा ही था, पर हम बैठे थे भूल उसे    ?
पर कहाँ…?
  अब तो सारा ध्यान  दर्द की ओर  लगा रहता है …………..!
  सोचता हूँ  कि कहीं यही दर्द ईश्वर  बन कर तो साथ नहीं रहता  मेरे     ?
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