अधिक नहीं बस याद यही ,
  कुछ हे कचोटता मुझे ,
  क्या हे ये भी शायद जानता ,
  मगर बताना भी बस ,
  बढ़ाना होगा उस कचोट को ,
  या शायद बह जाना होगा उसका …..
मगर सच हे कि ,
  इस घोर असमंजस में ,
  मैं खुद को तडपाना ,
  सजा देना चाहता हू …
कि शायद किसी तरह मेरी वह कचोट ,
  मेरे मन पर बना दे ,
  एक ऐसा निशां चोट का ,
  कि याद रहे मुझे सदा ,
  क्या था जो था कचोटता ,
  क्यों था जो था कचोटता ….
नहीं मैं कोई  दार्शनिक नहीं ,
  हु तो बस साधारण इंसान ,
  जिसने भी की हे कई गलतियाँ,
  सबकी तरह ,
  जी रहा जैसे कुछ किया ही नहीं ….
इन गलतियों और चोटों का हिसाब नहीं रखा मैंने ,
  मगर जब भी दी किसी और को चोट मैंने ,
  तब बना लिया दिल पर खुद के
  एक गहरा निशान चोट का ….

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