जीवन में होने वाली गलतियों , उनसे उत्पन्न टूटन और उसकी सहज स्वीकारोक्ति को समर्पित कविता ….
चटकन के पड़े निशां,
  छितराया मन का फलक
  एक टूटन बिखरी पड़ी ,
  अन्दर बहुत गहरे तलक …
समझ सका जो न खुद को ,
  खोज अर्थ भी न पाया  ,
  मन के अन्दर जो झाँका ,
  कुछ रौशनी कुछ अँधेरा पाया …
उस अंधियारे रस्ते पर ,
  चलने को बड़े कदम मेरे ,
  वो पतन नहीं था मेरा ,
  बस जिज्ञासा के थे घेरे …
उस  जिज्ञासा के पूरन में ,
  कुछ कलंक मेरे आये माथे ,
  कुछ लगे दोष नए ,
  कुछ मेरे असल थे साये …
सही गलत को क्या चुनना ,
  जब जिज्ञासा खुद हो रस्ता,
  सही तो हे बस वही ,
  जो हे पूर्व से ही स्थापित ,
  जिज्ञासा के शमन में ,
  सदा कलंक हे बसता ….
उस टूटन
  उस चटकन ने ,
  बहुत दूर मुझे ले आया हे
  भटकाव मेरा कम हुआ या ज्यादा ,
  कुछ समझ नहीं मन  पाया हे ….
बस हे तो एक जिज्ञासा ,
  जिज्ञासाओं के सच को जानने की,
  खुद के भटकाव को ,
  नए सिरे तक ले जाने की ,
  क्यूंकि ये भटकाव मेरा सच हे ,
  ये जिज्ञासा मेरा जीवन हक़ हे …
मैं बहूँगा समय कि धार  में पुनः ,
  एक नयी जिज्ञासा फिर आएगी ,
  टूटन का नया दौर चलेगा ,
  जो पुनः गहरे तक बिखर जाएगी ….

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें