घर आओगे
  उसने पूछा नहीं
  कुछ बात है।
गुमसुम सी
  केश खुले-बिखरे
  हां नाराज़ है।
स्नेह की कली
  विरह के नभ की
  धूप में खिली।
मुरझाई सी
  ह्रदय से लिपट
  हरी हो गई।
अनुपम है
  रूठने मनाने में
  जो मिठास है।
बिखरे हुए
  सुर मृदुभाव के
  लय बद्ध हैं।
“विनीत”मन
  गीत रच प्रेम के
  करबद्ध है।
  ….देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”

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