शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

मुमकिन न था ...

मेरे लिए खुद से प्यार करना मुमकिन न था …
साँसें तो ले लेती ..
मगर जीना मुमकिन न था ..
यूँ फरिश्तों ने आकर संभाला है मुझे ..
वरना अपने आपको खुद के लिए मानना मुमकिन न था …
शायरी मेरी धड़कने हैं ग़ालिब …
रूठ गयी थी मेरी रूह ही जैसे मुझसे …
सिसकते लबों को चुप करना मुमकिन न था …
मोहब्बत का हुआ है करम ऐसा मुझपे …
के अब ज़िन्दगी भरी आँखों मैं ,
वो उम्मीदों की लौ बूझना मुमकिन न था ….

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