शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

बाप्पा

बिनबुलाए तो नहीं कह सकता
घर तो आप ही ने दिया है
आप का तो हक है यह
हम ने तो बस कर्ज़ लिया है

आप तो हरसाल आते हो
हम भी खुश हो लेते है
बचपन से यही सुना है,
यही सीख बच्चों को भी देते है

घर की पुताई करो,
बरतनों की सफाई करो
भोग लगाना है आप को
दूध की मलाई करो

गणपती बाप्पा, गणपती बाप्पा
हरकोई गाता है
गली, नुक्कड, पूरे शहर में
बस मोरया छा जाता है

पर कुछ बदला ज़रूर है
बाप्पा, यहाँ आजकल
आप के आने का सुनकर ही
आजकल हम जाते है दहल

मंडपों में खोए हुए रास्ते
शोरगुल और भीड़-झमेला
चकाचौंद में झुलसता
शानदार भक्ती का ठेला

बरतन खरोचखरोच कर
हम करते प्रसाद का जुगाड
चौराहे पर हमारे ही पैसे से
देर रात तक चूहों की दहाड़

हर बड़े बूढे को कहते सुना है
गणपती में वो बात नहीं रही
आप तो बदल नहीं सकते, बाप्पा
हमारी ही औकात नहीं रही

बच्चों की तसल्ली के लिए, अब
हम भी रखते खुशी का भरम
वर्ना, सच कहता हूँ बाप्पा
आ जाती है ख़ुद पे शरम

– अमोल गिरीश बक्षी

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