शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

बूँदें.....

मुझे मेरी साँसों का वास्ता ..
देखा कितने दिनों ऐ बूंदों ..
मैंने तुम्हारा रास्ता…
आयी न तुम इस बार बहार महकाने को..
तड़पती धरती की ताप्ती प्यास बूझने को ..
खेत खलियान सुने पड़े हैं…
किसान नभ की ओर हाथ जोड़े खड़े हैं..
यूँ न ज़िन्दगी को तुम इतना तरसाओ …
किसी की आत्महत्या पर न मुस्कुराओ..
किसान टूट गया तो इंसानियत तिलमिलाएगी…
जाने ये कड़ी धुप और कितना झुलसाएगी ..
हुआ हैं हमसे कुछ कसूर ज्यादा , हम जानते हैं..
सीमेंट के जंगल में अब पेड़ों की अहमियत पहचानते हैं..
माफ़ कर दो न हम मनचले इंसानो को…
जाने क्यों हम लगे हैं अपना ही कफ़न सजाने को….
ए बूंदों आकर तुम ज़रा झमाझम बरस जाओ….
कहीं तन्नी कहीं नीर और कहीं जल बनकर..
हर उखड़ती सॉंस को जीवित पल दे जाओ….

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