बुधवार, 23 सितंबर 2015

ग़ज़ल ( कैसे कैसे रँग)

ग़ज़ल ( कैसे कैसे रँग)

कभी अपनों से अनबन है कभी गैरों से अपनापन
दिखाए कैसे कैसे रँग मुझे अब आज जीबन है

ना रिश्तों की ही कीमत है ना नातें अहमियत रखतें
रिश्तें हैं उसी से आज जिससे मिल सके धन है

सियासत में नहीं युबा , बुढ़ापा काम पाता है
समय ये आ गया कैसा दिल में आज उलझन है

सच्ची बात किसको आज सुनना अच्छी लगती है
सच्ची बात सुनने को ब्याकुल अब हुआ मन है

जीबन के सफ़र में जो मुसीबत में भी अपना हो
मदन साँसें जिंदगी मेरी उसको ही समर्पन है

प्रस्तुति :
मदन मोहन सक्सेना

Share Button
Read Complete Poem/Kavya Here ग़ज़ल ( कैसे कैसे रँग)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें