शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

रोशनी बुझा दो - शिशिर "मधुकर"

रोशनी बुझा दो कि रोशनी में आज दिखता है
अंधेरों से मुझे मिलादो अतीत जिसमे सजता है

तुझसे मांगूंगा अब मैं नहीं कुछ ख़ुदा
मुझे इल्म है तेरी इस दुनियाँ का
सोने की खातिर जहाँ प्यार भी
भर के दिलों में बिकता है .

रोशनी बुझा दो कि रोशनी में आज दिखता है
अंधेरों से मुझे मिलादो अतीत जिसमे सजता है.

सोचा था की एक लम्बा सफर तय करें
इस सफर में कोई हमसफ़र तय करें
जाना अब है की लम्बे सफर में मगर
अक्सर मुसाफिर लुटता है.

रोशनी बुझा दो कि रोशनी में आज दिखता है
अंधेरों से मुझे मिलादो अतीत जिसमे सजता है

अब तो हैरत नहीं कोई दौर पर
आए भी न जलाल अब किसी और पर
कितना सच है की लहरों के आने पर
रेतों पर लिखा हरदम मिटता है.

रोशनी बुझा दो कि रोशनी में आज दिखता है
अंधेरों से मुझे मिलादो अतीत जिसमे सजता है

शिशिर “मधुकर”

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