जब भी होता एकाकी मन
  चुपके से तुम्हारी बातें
  मन के कोने से निकल कर
  मुखातिब हो आती हैं
  ‘अकेली रहोगी’
  बात इतनी सी
  मन में तूफ़ान मचा जाती है
  एक एक हार्फ़ की टूटी किरचें
  मन को लहूलुहान कर जाती हैं
  आँगन की मिटटी अब भी गीली होगी
  मन के किसी कोने में आस जगा जाती हैं
  अनभिज्ञं नही मन मेरा भी
  तुझे भूलने की चाह में
  मुझे तिल-तिल मिटा जाती हैं !!!
  ~Shweta~

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