फ़ासले रिश्तों के दरमियाँ
  बता कर नहीं आते
  कोई ज़ख्म गहरा
  कोई मजबूरी सी
  कोई ग़म
  कोई अफ़सोस इक रोज़
  अपने साथ सब कुछ
  ले जाता है
  और ख़ामोश रूहें
  अलविदा कह कर बिछड़ जाती हैं
  उम्र भर के लिए
  दिल चीख चीख कर रोते हैं
  पर आवाज़ नहीं करते
  उन्हें चुप कराने
  बड़ी देर तक कोई नहीं आता
  ज़िन्दगी भी नहीं
  मौत भी नहीं।
शुक्रवार, 25 मार्च 2016
फ़ासलों का हश्र
गुरुवार, 24 मार्च 2016
पर्यावरण के दुश्मन हम
  घोर चिन्ता मे आज मानव मन
  देख बदलते पर्यवरण;
  प्रक्रिति ने जताई आपत्ति
  देकर पर्यावरण मे विपति;
  मानव न सोचा न जाना
  प्रक्रति को ललकारा
  काट दिये सारे जगल
  अब कहते है लगाओ जगल
  जगल मे ही है मन्गल
  रोक दिए नदीयो के चाल!
  देख बदलते पर्यावरण
  घोर चिन्ता मे मानव मन
  किन्तु मानव है स्वार्थी,बेदर्दी,
  पस्चाए तब जब निक्ले अर्थी
  अब पस्च्ताए क्या होत जब चिरईया
  चुग गयी खेत !
कविता।पगडण्डी के उस पार।होली आयी।
पगडण्डी के उस पार।होली आयी ।
होली आयी डरा गरीब
  पखवारे भर का दाम
  बस एक रात की शाम
  उम्मीद लगाते बच्चे
  किस्मत बेले पापड़
  सहता त्योहारों का भार ।
  पगडण्डी के उस पार ।। 
चलो दिखाएँ खुशियाँ
  पनपाती दुःख रूपी व्याज
  ब्यवहरो में लाज
  समाज झांकता चूल्हा
  सस्ते व्यंग्यों के वाण
  निर्धनता के अनुसार ।
  पगडण्डी के उस पार ।। 
सब रंग दिखे दो रंग
  फ़बते गजब अजीब
  अमीर और गरीब
  काला और सफेद
  बदरंग करें हुड़दंग ,दूसरा बेबस ,
  सहता किस्मत की मार ।
  पगडण्डी के उस पार ।। 
__©राम केश मिश्र
Read Complete Poem/Kavya Here कविता।पगडण्डी के उस पार।होली आयी।तेवरी।चारो तरफ़ बवाल है ।
तेवरी । चारो तरफ़ बवाल है ।
भारत माँ की शान का ।
  जनता के अरमान का । बुरा हो रहा हाल है ।। 
दिशाहीन इस राज में ।
  अंधे बने समाज में ।चारों तरफ़ बवाल है । 
प्रेम नही बस स्वार्थ है ।
  जन जन का ,चरितार्थ है । हुआ जा रहा काल है ।   
सज्जन तरसे भात को ।
  करे घोटाला रात को । गुंडे मालामाल है। 
रंक गिरा मझधार मे ।
  महँगाई की मार में ।काढ़ी उनकी खाल है । 
आतंकी आधार पर ।
  होते रहे शिकार पर । छुपे रह गये व्याल है । 
इन्हें फ़िक्र क्या शेष का ।
  मोल करेगे देश का । टेड़ी इनकी चाल है । 
देश बन्धु !हर मामला
  डटकर करो मुकाबला ।तन मन धन काल है।  
®राम केश मिश्र
Read Complete Poem/Kavya Here तेवरी।चारो तरफ़ बवाल है ।मन
न जाने किस उधेड़-बुन में रहता है..
  ये मन हर दिन इक नई कहानी रचता है…
कभी वक़्ता तो कभी श्रोता है…
  अपनी कहानी ख़ुद ही कहता है
  और ख़ुद ही सुनता है…..
न जाने किस उधेड़-बुन में रहता है..
  ये मन हर दिन इक नई कहानी रचता है…
साथ चलता है मेरे साथ,
  मेरे ख़यालों का क़ाफ़िला…
  रहता है फ़िराक़ में
  इक अनजाने से सफ़र का..
  इक अनदेखे चौराहे,
  इक गली, इक डगर का…
न जाने किस उधेड़-बुन में रहता है..
  ये मन हर दिन इक नई कहानी रचता है…
ऐसा होता, वैसा होता…
  कब, क्यों और कैसा होता…
  लगा रहता है अपने ही जोड़-गणित में…
  ख़ुद ही क्या लिख लेता है,
  क्या पढ़ लेता है…
  कभी तो ख़ुद से रूठ जाता है..
  तो कभी ख़ुद ही को मना लेता है..
न जाने किस उधेड़-बुन में रहता है..
  ये मन हर दिन इक नई कहानी रचता है…
होली का त्यौहार है
अम्मा बड़ी हताश हैं पप्पू बहुत उदास।
  सत्ता का घोड़ा छुटा, छुटी हाथ से रास।।
  रंग बदरंग हो गये।
  खोपड़े तंग हो गये।।
  जनाधार को खिसकता देख रहे अखितेश।
  अफसर भुगतेंगे अगर हार गये वह रेस।।
  नतीजा जो भी आये।
  हिले कुर्सी के पाये।।
  अनुमानों की रेस में हाथी का है क्रेज।
  बीजेपी भी धार से लगती है लबरेज।।
  पास आया सन सत्रह।
  कांग्रेस करे दुराग्रह।।
  पगड़ी वाले छुटे तो मिले केजरीवाल।
  गठे चुटकुले इस तरह बन गयी एक मिसाल।।
  फंसे हैं ऑड इवेन में।
  बसे हर दल के मन में।
  लालू और नितीश की खिचड़ी बड़ी कमाल।
  धरी रही मैनेजरी उतर गयी सब खाल।।
  अमित जी कला खा गये।
  विरोधी किला पा गये।।
  होली देहरादून में रंगीली इस बार।
  रंग चले कुछ इस तरह संकट में सरकार।।
  वेवफा कुर्सी भइया।
  डुबाये किसकी नैया।।
  अन्ना जी खामोश हैं रामदेव वाचाल।
  टीवी पर वह बेचते तरह तरह का माल।।
  लगा मैगी पर ताला।
  योग संग बिके मशाला।।
  रँग जेएनयू में बंटे लिए बाल्टी आव।
  देशद्रोह से पगे हैं गुझिया पापड़ खाव।।
  राहुल जी के मन भाए।
  कन्हैया घर हो आये।।
  होली का त्यौहार है मेलजोल की रस्म।
  उर की कटुता आज से होनी चाहिय भस्म।।
  प्रेम की जय जय बोलो।
  कर्म में मिश्री घोलो।।
बुधवार, 23 मार्च 2016
ग़ज़ल (होली )
ग़ज़ल (होली )
मन से मन भी मिल जाये , तन से तन भी मिल जाये
  प्रियतम ने प्रिया से आज मन की बात खोली है
मौसम आज रंगों का छायी अब खुमारी है
  चलों सब एक रंग में हो कि आयी आज होली है
ले के हाथ हाथों में, दिल से दिल मिला लो आज
  यारों कब मिले मौका अब छोड़ों ना कि होली है
क्या जीजा हों कि साली हों ,देवर हो या भाभी हो
  दिखे रंगनें में रंगानें में , सभी मशगूल होली है
ना शिकबा अब रहे कोई , ना ही दुश्मनी पनपे
  गले अब मिल भी जाओं सब, आयी आज होली है
प्रियतम क्या प्रिया क्या अब सभी रंगने को आतुर हैं
  चलो हम भी बोले होली है तुम भी बोलो होली है .
ग़ज़ल (होली )
मदन मोहन सक्सेना
Read Complete Poem/Kavya Here ग़ज़ल (होली )माँ
माँ तु हि है जन्म दाता,
  तेरे बिना जीवन खटकाता।
हाथ पकड़ कर चलना सिखाया,
  गीली बिस्तर से सुखे में सुलाया।
पढाई में मदद कर के महान बनाया,
  सब ने तेरे रुप में ही खुदा पाया।
अंधेरी रात में लोरी देकर दुःख को दुर भगाया,
  निंद्रा के सपनो को दुनिया में तुने दिखाया।
जब में रोया तो तेरी आँख में आँसु आए,
  जब हँसा फिर भी तेरी आँख में आँसु आए!
मंज़ील का रास्ता मैं भूल गया था,
  उसे तु ने ही पार लगाया।।
                         माँ तु हि है जन्म दाता…,
© Mayur Jasvani
  2012
होली की आप सभी को सपरिवार हार्दिक शुभकामनाये ....!!
होली की आप सभी को सपरिवार हार्दिक शुभकामनाये ….!!
तन भी रंग लो मन भी रंग लो
  आया त्यौहार ख़ुशी मनाने का
  भुलाकर सारे राग द्वेष ह्रदय से
  होली त्यौहार है गले लगाने का !! 
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  डी. के निवातियाँ___@@@
शादी का निमंत्रण(व्यंग)
शादी का कार्ड घर आया l
  मैंने भाग्यवान को समझाया l
  शादी में शगुन तो जाना है l
  सब को साथ लेकर जाना हैll 
शादी आई ………………………..
बारात गेट पर आ गयी सब नाचे गाये l
  कैमरे के आगे हम भी दुमका लगाये ll
  गेट में घुसते ही चेहरे पर मुस्कान आई  l
  मौका मिला, खोमचे की और दौड़ लगाई ll
  परिवार से कहा जो जिसे पसंद  है खाओ l
  आखिर शगुन तो वसूल करके आओ ll
  टिक्की ,भल्ले ,पापड़ी सबके पत्ते उड़ाए l
  बीच में अपनों से नज़रे मिलाते जाये ll
  हाथ में थी पाव-भाजी ,मुँह था खुला l
  आगे क्या खाना है सूखा या तला ll
  भर गया पेट पर नियत ना भर पायी l
  गर्म काफी के ऊपर ठंडी कुल्फी खाई ll
  खिलाकर बनावटी मुस्कान चेहरे पर
  एक दूजे को सब अपनापन दिखाए l
  नास्ता करो ! कहकर अपना पीछा छुड़ाए ll
  खाया पिया फिर चलने को हुए तैयार l
  शगुन से जयादा वसूला, किया नमस्कार ll
——————-
Read Complete Poem/Kavya Here शादी का निमंत्रण(व्यंग)कुछ
कुछ दबी हुई ख़्वाहिशें है
  कुछ मंद मुस्कुराहटें
  कुछ खोए हुए सपने है
  कुछ अनसुनी आहटें
  कुछ दर्द भरे लम्हे है
  कुछ सुकून भरे लमहात
  कुछ थमें हुए तूफ़ाँ हैं
  कुछ मद्धम सी बरसात
  कुछ अनकहे अल्फ़ाज़ है
  कुछ नासमझ इशारे
  कुछ ऐसे मझदार हैं
  जिनके मिलते नहीं किनारे
  कुछ उलझनें है ज़िंदगी की
  कुछ कोशिशें बेहिसाब
  कुछ ऐसे सवालात हैं
  जिनके मिलते नहीं जवाब 
निशा
Read Complete Poem/Kavya Here कुछमंगलवार, 22 मार्च 2016
बाबाओं का जमाना
आजकल का जमाना
  बाबाओं  का जमाना है
  नेता भी कमा  चुके
  अभिनेता भी कमा चुके
  अब बाबाओं  ने कमाना है
सर इतना भी न झुका कर चलो ....
सर इतना भी न झुका कर चलो की खुद की नजरों में तुम्हारा सम्मान गिर जाये
सर इतना भी न उठा कर चलो की गैरों की नजर में तुम्हारा सम्मान गिर जाये
Read Complete Poem/Kavya Here सर इतना भी न झुका कर चलो ....मानव अहन्कार किस बात पर
मानव जाति को है आज किस बात पर अहन्कार!
  किस प्रगति पर गर्व किया !
  क्योकि हमने दूर ग्रहो मे यात्रा किया
  या फिर अन्तरीक्श मे आधिपत्य जमाया
  अणु से परमाणो बनाया ?
  रट लगाते रहे सत्य और अहिसा का और अपनो का क्त्ल किया !
  धरम परिवर्तन करवाया, मन्दीर मस्जीद तोड्वाया
  नारी जाति पर जूल्म किया
  दलितो, गरीबो को लेकर राजनीति खेला
  फिर भी कहते है कि हम प्रगति के राह चल चला
  जब तक न हो मानव मन का विकास
  सारी प्रगति लगेगी वक्वास १
  मानव कर रहे वो क्रित्य
  जो न करे जानवर-रे मानव!दानवी प्रव्रिती त्याग कर
  न जा सके अगर महामानव बनने की ओर
  अन्त्ततः जीए हम मानव बनकर !!
“वर्तमान की विडंबना"
हर राष्ट्रवादी रों पड़ा,
  उन छात्रों के काले करतूतों से,
  हर भारतीय शर्म से पानी हुआ,
  उन देशद्रोह के नारों से ।
देश का नमक खा कर भी तुम,
  देश के टुकड़े चाहते हो,
  अगर "अफज़ल” को आदर्श मानते हो
  तो "कलाम” के देश के क्यों रहेते हो ।
दोगलेपन की दहलीज़ पे खड़े रहकर,
  समानता की बातें करते हो,
  जिस संविधान से आतंकियों को सज़ा मिली,
  उस महामहिम को चुनौती देते हो ।
अलगाववाद के राग आलापते रहेंगे,
  अभिव्यक्ति के नाम पे,
  गरीबों के ठेकेदार बनते रहेंगे,
  आज़ादी के नाम पे ।
समाजवाद के नाम पे सिर्फ सत्ता की रोटियाँ शेकना आता है,
  पर भारत में तो समाजवाद राष्ट्रवाद क दुश्मन बन जाता है ।
  इस गद्दार गिरोह ने तो सब्र की सीमाएँ लाँघ दी,
  जब सेना के जवानों की बलात्कारियो से तुलना की ।
वीरों की विजयगाथा की जगह,
  कायरों की वाहवाही होती है यहाँ,
  शहीदों के सम्मान की जगह,
  जयचंदो की जयकार होती है यहाँ ।
अगर "वंदे मातरम्” बोलने में विचारधारा बिच में आती है,
  तो खून की जाँच करवालो अपने, क्योंकि खून नहीं वो पानी है ।
  अब ऐसी परिस्थितियों में भी अगर खून तुम्हारा नही खौला,
  तो समज लेना के खून में तुम्हारे देशप्रेम का एक कतरा भी नही बचा ।
कितना बदल गया जमाना
पूरी् मानव जाति है आज किन्कर्त्व्यविमुर्
  जीवन के वास्तविक मुल्यो का अवमुल्यन कर
  हम कर रहे है अपना सर्वस्व न्योच्चावर
  उन सारे कामो पर-
               जिसमे मिलती खनिक सन्तुस्टी
               पर मानव मन यहा भट्क जाती
               स्पर्धा, दिखावे और चमत्कारी मे;
  आज सत्य की मर्यादा नही
  सभ्य असभ्य की पहचान नही
  मानव सभ्यता का पतन है या ऊथान
  निश्चित तो नही अपितू यह है सत्यमेव
  की हम न बन पाये सही इन्सान !
ZINDGI
ज़िंदगी
मालूम नहीं क्यूँ है तुझसे प्यार ज़िंदगी,
  लेकिन मै कर रहा हूँ बेशुमार ज़िंदगी ||
रोज़ वही बातें है रोज़ वो ही किस्से ,
  तू हो गयी है रोज़ का अखबार ज़िंदगी ||
कभी बिकता कभी खरीदता हर एक शख्स देखा,
  तू रह गई है बनके एक बाजार ज़िंदगी ||
मौत मारती है बस  एक आखिरी दिन ,
  तू कर रही है रोज़ ही शिकार ज़िंदगी ||
लगने लगा है आजकल डर सा मुझे तुझसे ,
  चेहरे को अपने थोड़ा तो संवार ज़िंदगी ||
कब से वही थमी सी खडी रह गई है तू,
  कुछ तो बढ़ा तू अपनी रफ़्तार ज़िंदगी ||
कर ले तैयार जख्म कोई आज तू फिर से,
  फिर आ रहा है मुझको कुछ करार ज़िंदगी ||
रो – रो के देना होगा तुझे फिर हिसाब इनका,
  तूने ले रखी हैं खुशियाँ फिर उधार ज़िंदगी ||
होली प्रेम गीत ..........(साजन सजनी प्रेम तकरार )
(साजन सजनी प्रेम तकरार )
(सजनी)
  जा रे जा रे जा रे पिया रे
  जा रे जा रे जा रे पिया रे
  मेरे प्यार की कद्र न जानी
  फिर क्यों तेरे संग में डोलू
  तेरे संग मै न होली खेलू ,जा रे जा रे जा रे पिया रे !!
  तेरे संग मै न होली खेलू ,जा रे जा रे जा रे पिया रे !!
(साजन)
  सुनरी सजनी, तू क्यों रूठे
  तू जो रूठे, मेरा दिल टूटे
  जब तक तुझ पे रंग न डालू
  कैसे मनेगी मेरी होली रे …
  मै तो तेरे संग होली खेलू आ रे आ रे आ रे पिया रे  !!
  मै तो तेरे संग होली खेलू आ रे आ रे आ रे पिया रे !!
(सजनी)
  तेरी यादो से रोज रंगी मैं
  फिर भी तूने नजर न डारी
  मेरे प्यार का असर नही है
  फिर क्यों रंगू मै तेरे रंग रे
  तेरे संग मै न होली खेलू ,जा रे जा रे जा रे पिया रे !!
  तेरे संग मै न होली खेलू ,जा रे जा रे जा रे पिया रे !!
(साजन)
  ख्यालो  में तू मेरे ख्वाबो में तू
  मेरे नयनो में बसी तस्वीर तेरी
  तेरे बिन मेरा ये जीवन सूना
  तुझ से ही मेरी तकदीर जुडी
  मै तो तेरे संग होली खेलू आ रे आ रे आ रे पिया रे  !!
  मै तो तेरे संग होली खेलू आ रे आ रे आ रे पिया रे !!
(सजनी)
  झूठे तेरे चाहत के वादे , इरादे
  तुझे लुभाने किये कितने बहाने,
  अब ना करू कोई शिकवा शिकायत
  कोई नया बहाना अब ना खोजू
  तेरे संग मै न होली खेलू ,जा रे जा रे जा रे पिया रे !!
  तेरे संग मै न होली खेलू ,जा रे जा रे जा रे पिया रे !!
(साजन)
  तू ही तो मेरे जीवन की रानी
  किसने तेरे मन में शंका डाली
  शिकवा शिकायत तेरा हक़ है
  इसका कभी मै बुरा नहीं मानू
  मै तो तेरे संग होली खेलू आ रे आ रे आ रे पिया रे  !!
  मै तो तेरे संग होली खेलू आ रे आ रे आ रे पिया रे !!
(साजन सजनी)
  हाँ री सजनी, हाँ रे सजना
  आज जी भर के दूजे पर
  हम रंग डाले बनके रसिया,
  होली का हमको नही इंतज़ार 
आजा रे आजा रे अपने रंग में रंग दे मेरा जिया रे  !!
  जा रे जा रे जा रे पिया रे ..जा रे जा रे जा रे पिया रे !!
  आजा रे आजा रे आजा रे….रंग से रंग दे मेरा जिया रे  !!
  जा रे जा रे जा रे पिया रे ..जा रे जा रे जा रे पिया रे !!
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  डी. के. निवातियां 
कितने निराले थे वो बचपन के खेल !!
बारिश के पानी में
  चलती कागज़ की कश्ती
  महीन धागो पर
  चलती माचिस की रेल
  कितने निराले थे वो बचपन के खेल !! 
बिन मौसम की
  बारिश में ओले गिरते
  चाव से समेटकर
  उन्हें रखने में होते फेल
  कितने निराले थे वो बचपन के खेल !! 
परनाला रोक
  छत पर पानी भरना
  भीगते हुए फिर
  उसमे मस्ती से जाते लेट
  कितने निराले थे वो बचपन के खेल !! 
बहरी दुपहरी में
  घर से निकलना
  पोखर में नहाकर
  खाते झाडी के बेर
  कितने निराले थे वो बचपन के खेल !! 
पेड़ के पीछे खड़े हो
  लगाते लम्बी सी टेर
  हाथो से बंधकर
  बनाते लम्बी सी बेल
  कितने निराले थे वो बचपन के खेल !! 
गाँव मोहल्ले की
  वो संकरी गलिया
  जिनमे छुप छुप खेले
  चोर सिपाही के खेल
  कितने निराले थे वो बचपन के खेल !! 
टोली में निकलते
  करते जंगल की सैर
  अमवा की छावँ
  बैठ कर खाते थे बेल
  कितने निराले थे वो बचपन के खेल !! 
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डी. के. निवातियां_______@@@
Read Complete Poem/Kavya Here कितने निराले थे वो बचपन के खेल !!महेन की बुझती ज्योति
आज दुल्हन के लाल जोड़े मे,
  उसे सखियों ने सजाया होगा .
मेरी जान के गोरे हाथो को
  मेहँदी से रचाया होगा  
गहरा होगा मेहँदी का रंग
  उसमे नाम छुपाया होगा 
रह रह कर वो रोई होगी
  जब भी ख्याल मे आया होगा 
दर्पण मे खुद को देखकर
  अक्स मेरा ही पाया होगा 
परी सी लग रही होगी वो आज
  मगर कैसे खुद को समझाया होगा 
अपने हाथो से उसने आज
  खतो को मेरे जलाया होगा 
मजबूत खुद को करके उसने
  यादों को मेरी मिटाया होगा
सोमवार, 21 मार्च 2016
तुम बिन होली में............( विरह गीत )
तुम बिन होली में….!
ये मुझ पे कैसी पड़ी है पीर
  तुम बिन होली में, पिया तुम बिन होली में….!
  मोहे भाये न गुलाल अबीर,
  तुम बिन होली में, पिया तुम बिन होली में….!
सखी सहेली सब मोहे छेड़े
  तेरी जुदाई मेरा दिल तोड़े
  आस नहीं कोई तेरे मिलन की
  रो रो के बहे नयन से नीर, तुम बिन होली में,
  मोहे भाये न गुलाल अबीर, तुम बिन होली में !!
फाग के मौसम में जियरा बहके
  होली की अगन में बदन है दहके
  फूल भी अब तो लगते कांटो जैसे
  मुझसे सही न जाए ये पीर, तुम बिन होली में,
  मोहे भाये न गुलाल अबीर, तुम बिन होली में !!
व्याकुल मन में शंका जागी
  रातो से मेरी निंदियां भागी
  जाने किस हाल में होंगे प्रीतम
  अब कोई आके बंधाये धीर, तुम बिन होली में,
  मोहे भाये न गुलाल अबीर, तुम बिन होली में !!
तेरे बिन नही कुछ अच्छा लगता
  नीरस मन से जीवन सूना लगता
  प्राण बसे है मगर अब जान नही
  मानो नश्वर हुआ शरीर, तुम बिन होली में,
  मोहे भाये न गुलाल अबीर, तुम बिन होली में !!
ये मुझ पे कैसी पड़ी है पीर
  तुम बिन होली में, पिया तुम बिन होली में….!
  मोहे भाये न गुलाल अबीर,
  तुम बिन होली में, पिया तुम बिन होली में….!
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  डी. के. निवातियां____@@@
नफरत की आग
न तुझमे बुराई है, न मुझ में बुराई है
  फिर नफरत की आग किसने लगाई है !
  लगाने वाले ने तो रोटिया सेंक ली,
  इसमें जलने वाले तेरे और मेरे भाई है !!
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  डी. के. निवातियां……!!
ग़ज़ल।मुहब्बत हो गयी होगी।
    गज़ल।मुहब्बत हो गयी होगी ।
                   (16,18’1,20,13,1)
नज़र की बेकसी दिल को शिनाखत हो गयी होगी ।
  अशिलियत तुम छिपाओ पर मुहब्बत हो गयी होगी ।। 
तेरी नाजुक नज़ाक़त पर ज़माना शक़ जताता था ।
  अग़र तुम माफ़ कर देना शरारत हो गयी होगी ।। 
मुझे अफ़सोस चुप मैं था तेरी मासूम हरक़त पर ।
  नज़र तुमने जो पलटी है शिक़ायत हो गयी होगी ।। 
ज़माने की तो आदत है बुराई प्यार की करना ।
  तुम्हारे दिल लगाने पर नफ़ासत हो गयी होगी । 
लगाकर छोड़ आया हूँ दिलों में दिल का इक पौधा ।
  मुझे मालूम है दिल की हिफ़ाजत हो गयी होगी ।। 
कहा तक ख़्वाब मैं बुनता तुम्हारे उन इशारों का ।
  मेरी ख़ामोशियों की भी मिलावट हो गयी होगी  ।। 
मुझे तकलीफ़ है चेहरा नजऱ भर कर नही देखा ।
  मग़र चेहरे से नज़रों की रफ़ाक़त हो गयी होगी ।
महज़ दो चार दिन की ये मिली जो प्यार की दौलत।
  तुम्हारी याद में ग़म की दावत हो गयी होगी ।। 
ज़रा सा प्यार देकरके रवाना हो गये “रकमिश” ।
  ‘मुकद्दर भी बदलता है?” कहावत हो गयी होगी ।। 
©रकमिश सुल्तानपुरी
©©© .
Read Complete Poem/Kavya Here ग़ज़ल।मुहब्बत हो गयी होगी।रविवार, 20 मार्च 2016
ग़ज़ल।वफ़ा के नाम पर।
ग़ज़ल ।वफ़ा के नाम पर मैंने।
काफ़िया- लुटाई,जुदाई,मिलाई,निभाई आदि ।
  रदीफ़-समझ पाया । 
मतला-
  वफ़ा के नाम पर दुनियां लुटाई तो समझ पाया ।
  मुहब्बत में मिली मुझको जुदाई तो समझ पाया ।।
शेर–
  यहाँ ख़ामोश रहने पर निगाहें तक चुरा लेगे ।
  भरे अश्कों से जब आँखे मिलाई तो समझ पाया ।।
यक़ीनन हो ही जाता है दिले सौदा सराफत का ।
  यहा रिस्तो की क़ीमत जब निभाई तो समझ पाया ।।
ख़्वाब मैंने भी पाले थे सुनहरे याद के सपने ।
  मिली राहे मुहब्बत पर तन्हाई तो समझ पाया ।।  
न ग़र्दिश है , न बंदिश है , न रंजिश है,न रंजोगम ।
  मिली न माँगकर देखा रिहाई तो समझ पाया ।। 
मकता–
  वहम था उम्रभर मुझको किसी के प्यार का “रकमिश”।
  जुबां तक बात दिल की जो आयी तो समझ पाया ।।  
पृथ्वी राज चौहान
तराइन का मैदान था
  गौरी सम्मुख चौहान था
  एक तरफ सिर्फ  छल था
  दूसरी तरफ सिर्फ बल था
  छल को तो  जितना था
  सो छल जीत गया
  छल के सम्मुख
  बल को तो हारना था
  सो बल हार गया
  चौहान राज्यहीन हुआ
  और गौरी श्रीहीन हुआ
  लेकिन गजनी का
  तमाशा अभी बाकि था
  चौहान के जीवन में लिखा हुआ
  भाग्य का पाशा अभी बाकि था
  चौहान के युद्ध कौशल का
  गवाह बना बरदाई था
  राजपुताना खून था वो
  न पानी था न स्याही था
  गौरी का सिंहासन
  गजनी की शान था
  लेकिन चौहान की आन
  उसका धनुष बाण था
  बंदी रहकर भी उसने अपनी
  आन पे आंच न आने दिया
  गौरी का सीना छलनी कर
  अपने प्रण को पूरा किया
  आज भी उसकी वीरता
  एक अमिट कहानी है
  उसकी वीरता को नमन है
  यही हर भारतीय की वाणी है
शनिवार, 19 मार्च 2016
पूछा जो हम ने ...............
पूछा जो हम ने
  किसी और के होने लगे हो क्या..??
  वो मुस्कुरा के बोले
  पहले तुम्हारे थे क्या..???
सुनकर जबाब उनका
   बोलती हमारी बंद हो गयी
  हसकर वो फिर बोल पड़े
  जबाब में कोई गलती हो गयी !!
सहसा धीरे से होठ हिले,
  हम भी प्रत्युत्तर में बोल पड़े
  हमारे होते तो ये सवाल नही होता !
  अगर होता सवाल भी तो जबाब ये नही होता !!
अगर तुम हमारे होते
  तो जबाब कुछ इस तरह से आया होता
  जब हम अपने ही नही रहे तो
  किसी और के होने का सवाल ही नही होता !!
माना के सवाल गलत था
  पर इरादो को भी तुमने गलत समझा क्या !
  एक हो चुकी धड़कन कब की
  फिर जिस्म अपने जुदा रहे भी तो क्या !! ! !
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  डी. के. निवातियां________@@@
रंग बदलना(व्यंग)
मेट्रो में सवारी करने का मिला मौका l
  उसमे चल रहा था ठंडी हवा का झॉका l
  स्टेशन आया रुकी गाड़ी, डोर खुला l
  और तभी चढ़ी कुछ अबला नारी l
  तभी हो गयी मुझसे एक गलती भारी l
  एक नारी को महिला कहकर क्या बुलाया l
  उसका चेहरा गुस्से से तमतमाया ll
बोली ………………………….
क्या मै तुम्हें महिला नजर आती हूँ l
  मेरी उम्र ही क्या है अभी तो मै l
  खुद एक बच्ची नज़र आती हूँ ll
मै बोला ………………………..
माफ़ करना महिला कहकर नहीं बुलाऊंगा l
  सबको अपने से कम उम्र का ही बताऊंगा ll
समय बिता………………………..
एक दिन फिर मेट्रो मै वो नज़र आई l
  मुझे महिला सीट पर बैठा देख पास आई l
  बोली माफ़ करना उठिए ये महिला सीट हैl
  मै बोला आज आप महिला कैसे हो गयी l
  उस दिन क्यों मुझ पर लाल-पीला हो गयीl
  वो बोली सीट का कमाल है मेरे भाई l
  यहाँ सीट के लिए महिला तो क्या l
  बुजुर्ग बनने मै भी नहीं है कोई बुराई ll
  तभी समझ गया गिरगिट है ये इंसान l
  कब रंग बदल ले नहीं कर सकते पहचान ll
———————-
Read Complete Poem/Kavya Here रंग बदलना(व्यंग)रंग बदलना(व्यंग)
मेट्रो में सवारी करने का मिला मौका l
  उसमे चल रहा था ठंडी हवा का झॉका l
  स्टेशन आया रुकी गाड़ी, डोर खुला l
  और तभी चढ़ी कुछ अबला नारी l
  तभी हो गयी मुझसे एक गलती भारी l
  एक नारी को महिला कहकर क्या बुलाया l
  उसका चेहरा गुस्से से तमतमाया ll
बोली ……………………….
क्या मै तुम्हें महिला नजर आती हूँ l
  मेरी उम्र ही क्या है अभी तो मै l
  खुद एक बच्ची नज़र आती हूँ ll
मै बोला ………………………..
माफ़ करना महिला कहकर नहीं बुलाऊंगा l
  सबको अपने से कम उम्र का ही बताऊंगा ll
समय बिता…………………………….
एक दिन फिर मेट्रो मै वो नज़र आई l
  मुझे महिला सीट पर बैठा देख पास आई l
  बोली माफ़ करना उठिए ये महिला सीट हैl
  मै बोला आज आप महिला कैसे हो गयी l
  उस दिन क्यों मुझ पर लाल-पीला हो गयीl
  वो बोली सीट का कमाल है मेरे भाई l
  यहाँ सीट के लिए महिला तो क्या l
  बुजुर्ग बनने मै भी नहीं है कोई बुराई ll
  तभी समझ गया गिरगिट है ये इंसान l
  कब रंग बदल ले नहीं कर सकते पहचान ll
———————-
Read Complete Poem/Kavya Here रंग बदलना(व्यंग)शुक्रवार, 18 मार्च 2016
नया दिन नयी शाम है.
नया दिन नयी शाम है,
  सबसे अलग पहचान है.
  सबसे मिला सबसे जुडा,
  नयी जिंदगी नयी चाल है.
  दोस्तों की दोस्ती,
  दुश्मनों की चाल है.
  सबसे अलग सबसे जुदा,
  अपना यही अंदाज़ है.
  हर पल सदा खुश हु,
  आप सबका प्यार है.
  पूरी हो सब ख्वाइशे,
  यही मेरी तमन्ना है.
  जीना भी यही मरना भी यही,
  फिर क्यों झगडना है.
  सबको शुक्रिया दिलसे,
  बस यही अब कहना है.
  नया दिन नयी शाम है,
  सबसे अलग पहचान है.
  सबसे मिला सबसे जुडा,
  नयी जिंदगी नयी चाल है.
~SmB~
Read Complete Poem/Kavya Here नया दिन नयी शाम है.तू मेरी तक़दीर हैं
तेरी चाहत मुझे ले आई तेरे करीब हैं ……
  अब तेरे हाथों में ही मेरी तक़दीर हैं !!
अनजानों से भरी इस दुनिया में मुझे …….
  दिखाई देती सिर्फ तेरी तस्वीर हैं .!!
कुछ वक़्त के लिए ऐसा लगा जैसे कोई नहीं हैं ……
  फिर भी मेरे हाथों में तेरे नाम की लकीर हैं .!!
मिली जो अचानक नजर तुमसे ………
  यूँ लगा दिल के पार हुआ कोई तीर हैं .!!
कहना बहुत कुछ था तुझसे मुझे ………
  कुछ कह नहीं पाती हुँ ये दिल कितना मजबूर हैं .!!
तड़प उठा फिर ये दिल मेरा …………..
  तेरी सादगी में कैसा ये नूर हैं .!!
हर पल तेरे ही बारे में सोचा करते हैं हम …..
  मुझको तुझसे बाँधे कैसी ये जंज़ीर हैं .!!.
रचनाकार : निर्मला ( नैना )
Read Complete Poem/Kavya Here तू मेरी तक़दीर हैंहो जाने दो ........ ( ग़ज़ल )..................डी. के. निवातियां
हो जाने दो …….. ( ग़ज़ल )
अश्क नही ये गमो का सागर है इसे बह जाने दो
  न रोको इन्हे तुम आजा पानी  पानी हो जाने दो !
कैसे गुजरते पल जुदाई के अगर जानते हो तो
  लगा लो सीने से अरमान दिल के पूरे हो जाने दो  
संग में बीती यादों का गुजरा एक लम्हा हूँ मैं,
  इस पल को भी जिंदगी का हसीं पल हो जाने दो !
चाहे तो रख ले समेटे कर या गुजर जाने दे मुझे,
  या करके बेरुखी हमसे टूटकर चूर चूर हो जाने दो !
चाहत है के बन जाऊं मै तेरे होंठो की मुस्कान
  हसरत इस दिल की ये भी परवान हो जाने दो !
तेरी हर ख़ुशी हर गम का राज मैं तेरे आंसू भी हूँ
  दूर जाना है मुश्किल,शामिल तुम में हो जाने दो !
न रहे गिला शिकवा बाकी जिंदगी से “धर्म” को कोई
  मिलके हर हसरत आज इस दिल की पूरी हो जाने दो !!
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  !
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  डी. के. निवातियां_________@@@
कलमों के सौदागर
— ——-कलमों के सौदागर—–
देशभक्ति पर ढोंग रचाते कुछ कलमों के सौदागर
  आतंकी का मान बढ़ाते कुछ कलमों के सौदागर
  जिनकी कलम चवन्नी भर की कीमत से है बिक जाती
  कलमों का सम्मान गिराते कुछ कलमों के सौदागर 
जिन कलमों में आज भरी है अफजल नाम की स्याही है
  लगता है उनके घर में अफजल की बेटी ब्याही है
  और नपुंसक की औलादें हमको तो वो लगती हैं
  जिसने चाटुकारिता में ही अपनी कलम ज्यायी है
कवि देवेन्द्र प्रताप सिंह “आग”
  9675426080
सैनिक
——-सैनिकों के अपमान पर——-
सैनिकों ने शोणित से
            सींच के सँवार दिया,
  जग में बुलंद किया
             भारती का नाम है
  पर मंदिरों में जो
            ले जाता है निरोध
  आज करता विरोध
       और लगाता इल्जाम है 
अब तो उबालो सब
                 रग-रग में बसा जो
  राणा और शिवाजी वाला
                  रक्त हुआ जाम है
  देशद्रोहियों की फिसली
                 जुबान काटने का
  दरबारों का ना हम
               सब का भी काम है 
कवि देवेन्द्र प्रताप सिंह “आग”
  9675426080
ढोंगी
सुनो ढोंगी सारे मनु ग्रंथ को जलाने वाले
  झूटे सम्मान का ये ढोंग बन्द कीजिए
  और फैलती समाज में जो भी बुराइयां हैं
  उनको भगाने के उपाय चंद कीजिए
  ग्रंथ को जलाने से जो हो जाए बुराई दूर
  फिर तो ऐसे ही कृत्यों का आनंद लीजिए
  दम है तो झूटी अभिमानी जो किताब
  आसमानी उसको जलाने का प्रबंध कीजिए 
कवि देवेन्द्र प्रताप सिंह “आग”
  9675426080
सुन ले पाकिस्तान
सुन ले शैतान तू नापाकी पाकिस्तान
  मत कर अभिमान ना बहुत पछताएगा
  भारती को खण्ड-खण्ड करने की चाह में तू
  नाभिको के जैसा ही विखण्ड होता जाएगा
  माना हिन्द में कमी नहीँ जयचंदों, जाफरों की
  पर जब भी वक़्त-ए-पाकिस्तानी जंग आएगा
  तब मुर्दा भी खड़ा होके लेके गन
  देशद्रोही, पाकिस्तानियों को मार के गिराएगा 
कवि देवेन्द्र प्रताप सिंह “आग”
  9675426080
गुरुवार, 17 मार्च 2016
आरक्षण की आग
पूरब हो या पश्चिम हो या बात करें उत्तर दक्षिण की
  हर जगह कोलाहल है बस केवल आरक्षण की
  यू.पी. हो या एम.पी हो  या फिर हरियाणा राजस्थान है
  आरक्षण की आग में झुलसा पूरा हिन्दुस्तान है
  आरक्षण केवल राजनीतिक हथकंडा है
  सत्ता पाने का केवल एक सियासी धंधा है
  आरक्षण वैशाखी है शासन करने वालों की
  और  सहारा बन जाता है मेहनत से डरने वालों की
  जो अपनी प्रतिभा के दम पर कुछ खास नहीं कर पाते है
  वो केवल आरक्षण के बल पर आगे बढ़ जाते हैं
  आरक्षण का जब तब राग अलापा जाता है
  प्रतिभा को भी जाति के मापदंड से मापा जाता है
  मेहनतकश भी कभी कभी वंचित रह जाते हैं
  जब प्रतिभा के बदले जाति देखे जातें है
  कुछ लोगों के तो इतने भविष्य सुरक्षित होते है
  क्योंकि इनकी श्रेणी पहले से ही आरक्षित होते है
  आरक्षण हल नहीं है अपितु समस्याओं की जड़ है।
  केवल वोट बैंक की खोने का डर है।
  संविधान में की जाने वाली गड़बड़ है।
  राजनीति का जरिया भर है।
  भरपाई अब कौन करेगा इससे होनेवाले नुकसान की
  विश्व पटल पर ध्ूामिल होती छवि हिन्दुस्तान की।
मंगलवार, 15 मार्च 2016
तब और अब (व्यंग)
शादी से पहले
  —————–
  उसकी झुल्फे जब यूँ
  मेरे चेहरे से टकरा गई
  खिल उठा ये चेहरा और
  दिल से आवाज़ आ गई
  मत बांध अपनी झुल्फो को
  यूँ ही इसे लहराने दो
  मदहोश मुझे कर रखा है
  होश में मुझे ना आने दो ll 
शादी के बाद
  —————–
  उसकी झुल्फे जब यूँ
  मेरे चेहरे से टकरा जाती है
  गुस्से से भर जाता है चेहरा
  दिल से यही आवाज़ आती है
  बांध ले अपने इन चुंडो  को
  फैला के क्यों इन्हे यूँ रखा है
  कितने दिन ये  धोये हो गए
  बेहोश मुझे कर रखा है ll
———————–
Read Complete Poem/Kavya Here तब और अब (व्यंग)भीड़ में भी रहके अकेला हूँ मैं
भीड़ में रहके भी अकेला हूँ मैं
  अकेले रहके भी खुश नही हूँ मैं
रुपये की ख़ुशी तो करोड़ो के गम
  जिंदगी कटतीही है चाहे कितने हो गम
  भीड़ में रहके भी अकेला हूँ मैं
ख़ुशी तो मानो टिकती ही नही
  गम तो जैसे पाल रहे है
  भीड़ में रहके भी अकेला हूँ मैं
जिंदगी तुझसे क्या माँगू और
  दिल का हाल क्या सुनाऊ और
  भीड़ में रहके भी अकेला हूँ मैं
वक्त बदलता है तो लगता है डर
  मायूसी को आगे देखता हूँ अक्सर
  भीड़ में रहके भी अकेला हूँ मैं
कहते है उम्मीद पे दुनिया कायम है
  सदियोसे यही सुनता आया हु मैं
  भीड़ में रहके भी अकेला हूँ मैं
आज नही तो कल होगा मेरा
  जिंदगी तू साथ देना मेरा
  करोड़ो के गमो को लड़ेंगे साथ
  यकीन है हमे रहेगा तेरा साथ
भीड़ की तनहाई से ऊब चुका हु मैं
  लड़ाई के लियें अब तैयार हूँ मैं
  लफ्ज नही आगे के कुछ लिख पाऊ
  तैयारी जो करनी है, बहोत कुछ सह पाऊ
  भीड़ में भी रहके अकेला हूँ मैं
वर्तमान हालात
————वर्तमान हालत————-
राम लला रो रहे हैं फटे हुए तम्बुअों में
  और श्री कृष्ण रो रहे हैं राजधानी में
  आज यदुवंशी सरकार भी लगी है छोड़
  गौरक्षा, गौपालन को जंगल की रानी में
  हज पर छूट जजिया अमरनाथ पे तो
  बदला ही क्या है इतिहास की रवानी में
  अब तो करो ऐलान-ए-जंग सारे हिंदू संग
  या तो डूब मर जाओ चुल्लू भर पानी में 
कवि देवेन्द्र प्रताप सिंह “आग”
  9675426080
आज़ाद
चंद्रशेखर आजाद जी की पुण्य तिथि पर आजाद जी को पुकारती मेरी ताजा रचना —
रचनाकार- कवि देवेन्द्र प्रताप सिंह “आग”
  whatsapp-9675426080
आजाद ही आजाद थे ना कोई अब आजाद है
  उजडा है सेनानी का घर और दुष्ट का आबाद है 
अब युवा भी लालचो की लार में लिपटे सभी
  और  पीकर  मैकदे  में  मूत्र  को  बर्बाद  हैं 
भारती माँ आज है जंजीर में जकडी हुई
  हो रहा आतंकियों से प्यार का संवाद है 
आज़ाद ना हैं बेटियाँ भी मर रहीं हैं कोख में
  पर सभी को आशिकी का वो ज़माना याद है 
आज़ाद ना माँ धेनु है सब खा रहे हैं बीफ को
  आदमी भोला था जो अब बन रहा जल्लाद है 
गूँज बर्बादी की अब उठती है हर इक शहर से
  गोरियों जयचंद की अब बढ़ रही तादाद है 
जिस तरह तुमको छला था नेहरु की इक चाल ने
  उस तरह का आज भी फैला ये नीतिबाद है 
आग आरक्षण की है ये अब जलाती रूह को
  फैली है लोकतंत्र में घटिया ये जातिवाद है 
आज के दिन गोधरा में थी जली इंसानियत
  उस तरह की शांति का अब हर जगह अपवाद है 
खास जाति धर्म का ही  हो रहा उत्थान अब
  कैसी है धर्मनिरपेक्षता कैसा समाजवाद है 
“देव” तुमको अब पुकारे फिर से आओ चंद्र जी
  काबिले ना अब भरोसे कलियुगी औलाद है 
कवि देवेन्द्र प्रताप सिंह “आग”
  9675426080
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जलता हिन्दुस्तान
जलता हिंदुस्तान देखकर
  आँखे आज हुईं हैं नम
  घड़ी कठिन भारी है और
  पारस्थितियाँ भी हुईं विषम 
                      कहीँ पे गंगा मैली होती
                        कहीँ पे गाय तोड़ती दम
                        कहीँ तिरंगा जलता है
                        कहीँ आरक्षण का है दमखम 
समय है अब शमशीरो का
  फिर क्यों बैठे बुद्धम शरणम
  अब आओ राणा के वंशज
  सब मिलकर आज दिखाएँ दम 
                     मानवता के हत्यारों और
                       अफजल गैंग को करें ख़तम
                       फ़िर मिलकर भारत माँ के
                       चरणों में शीश झुकाएँ हम 
कवि देवेन्द्र प्रताप सिंह “आग”
  9675426080
मोदी जी से माँग
विकास वाले मोदी जी से एक माँग जिस पर आप सबका समर्थन चाहिए ——
हो रहे हैं बलिदान वीर सैनिकों के प्राण
  बढ़ता विकास का प्रवाह मंद कीजिए
  सिर्फ जान देने के लिए नहीँ हमारे वीर
  इनकी सुरक्षा के उपाय चंद कीजिए
  अभी बड़ी योजनाएँ स्मार्ट सिटी वाली
  और मेक इन इंडिया को बन्द कीजिए
  बाद में दिखाना सपने बुलेट ट्रेन वाले
  पहले बुलेट प्रूफ जैकेट का प्रबंध कीजिए 
कवि देवेन्द्र प्रताप सिंह “आग”
  9675426080
एक ललकार नीच हिन्दुओं को
–एक ललकार नीच हिन्दुओं के लिए–
भ्रष्ट राजनीति खुली बयानबाजियों में
  आके धेनु-रक्षा नीतियों पे मत रीझिए
  गायों की दशा के जिम्मेदार हम खुद ही हैं
  खून घूंट का ना सिर्फ तस्करों पे पीजिए
  अब तो जागो दुष्ट नीच सोये क्यों हो आँख मींच
  अब खोल हाथ पुण्य कर्म कांड कीजिए
  काट देंगे तस्करों कसाइयों कॊ बाद में हम
  पहले सब ही गऊ पालन का संकल्प लीजिए 
कवि देवेन्द्र प्रताप सिंह “आग”
  9675426080
माँ
———माँ ————
माँ ही दाती है सुखों की माँ ही दवा है दुखों की माँ के प्यार में जहाँ की खुशियाँ अपार हैं
  घर की है शान माँ ही घर का है प्राण माँ ही बिन माँ के सूना सबका ही घर द्वार है
  खुद भूखी रहके भी परिवार पाले माँ ही दुख ना दो माँ कॊ माँ ही स्वर्ग का संसार है
  फ़िर भी कपूत कुछ भेजें माँ कॊ वृद्धागार ऐसे कपूतो का जिन्दा रहना ही बेकार है 
कवि देवेन्द्र प्रताप सिंह “आग”
  9675426080
आग ही लगा दो
धर्मग्रंथ खो गये हैं वेद मंत्र सो गये हैं और आग लगी गंगा यमुना के पानी में
  बेटियों की और गऊ माँ का हुआ हाल बुरा, खोट लगे सबको भगवान की निशानी में
  सब्र अब खो रही है भारती माँ रो रही है उलझे सभी हैं हीर रांझा की कहानी में
  देश धर्म के हितों काम ना आ पाए फिर आग ही लगा दो ऐसी अल्हड़ जवानी में 
कवि देवेन्द्र प्रताप सिंह “आग”
  9675426080
मेजर बख्शी जी के समर्थन में
मेजर साहब के समर्थन में —
अब ना और ये चौहान घर के जयचंदों और गोरियों की दुष्ट चालों से ना छलते जाएँगे
  अब ना और वीर शहीदों के और वीर सैनिकों के दिलों के ना अरमान जलते जाएँगे
  अब ना खुद को अकेला समझो मेजर साहब अब ना आस्तीन के ये साँप पलते जाएँगे
  छोड़ के कलम हम भी बाँध के कफ़न साथ देने आपका मैदान-ए-जंग चलते आएँगे 
कवि देवेन्द्र प्रताप सिंह “आग”
  9675426080
