पूरी् मानव जाति है आज किन्कर्त्व्यविमुर्
  जीवन के वास्तविक मुल्यो का अवमुल्यन कर
  हम कर रहे है अपना सर्वस्व न्योच्चावर
  उन सारे कामो पर-
               जिसमे मिलती खनिक सन्तुस्टी
               पर मानव मन यहा भट्क जाती
               स्पर्धा, दिखावे और चमत्कारी मे;
  आज सत्य की मर्यादा नही
  सभ्य असभ्य की पहचान नही
  मानव सभ्यता का पतन है या ऊथान
  निश्चित तो नही अपितू यह है सत्यमेव
  की हम न बन पाये सही इन्सान !

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