( हिन्दू संस्कृति, हिन्दी,और मातृभाषा से दूर हो रहे तथा पश्चिमी सभ्यता की ओर भाग रहे हिन्दुओं पर आक्रोश व्यक्त करती मेरी एक कविता )
रचनाकार–कवि देवेन्द्र प्रताप सिंह
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“आज कलम से शब्दों का, मैं शंखनाद करने आया
हिन्दू और हिन्दू संस्कृति की दूरी कम करने आया
जिसको देखो वही लगा अब, नूतन है वर्ष मनाने में
कोई झूम रहा क्लब में, कोई झूमे मयखाने में
भूल गये हिंदुत्व दिवस, संकल्प दिवस से भाग रहे
मध्य रात्रि में नयी प्रजाति के उल्लू भी जाग रहे
मेरी क्रिसमस याद रहा, तुलसी पूजा को भूल गये
अँग्रेजी तॊ याद रही, हिन्दू नव वर्ष को भूल गये
अल्लाह, जीसस, मुल्ला साईं, इनकी आँखों के नूर हुये
मन्दिर का कोई पता नहीँ और राम लला से दूर हुये
उगा ज्ञान का पूरब से सूरज, पश्चिम में अस्त हुआ
फिर भी पश्चिम के अन्धज्ञान, ईसा-जीसस में मस्त हुआ
कोई ज्ञानोपदेश नहीँ, इन पश्चिम के त्यौहारों में
अत्यन्त घिनौनी फूहड़ता है, पश्चिम के व्यवहारों में
क्या नर क्या नारी, सब बोल रहे अँग्रेजी वर्णों में
हिन्दू, हिन्दी की औलादें हैं अँग्रेजी के शरणों में
माँ को मदर,पिता को फादर, मम्मी, डैडी बोल रहे
अंध ज्ञान के दरवाजे, अपने हाथों से खोल रहे
हिन्दू की हिन्दी, माँ, मौसी और संस्कृत भी नानी है
फिर भी तुमको सारी बातें ये लगती क्यों बेमानी हैं
हिन्दू, हिन्दी त्यौहारों में, रहता अम्बर सा सूनापन
धर्मांतरित लगता है सबका, अंदर बाहर से तन मन
कहे “देवेन्द्र प्रताप सिंह” हिन्दू संस्कॄति को अपनाओ ”
पश्चिम, अँग्रेजी अन्धकार में, जान बूझकर ना जाओ
——————–कवि देवेन्द्र प्रताप सिंह
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