रविवार, 6 मार्च 2016

अकेलेपन की अंगड़ाइयां

पता नहीं कभी कभी क्यों खुद को इतना अकेला पाता हूँ,
हजारों की भीड़ में भी पंछियों के सुरों को सुन पाता हु ।

कभी समंदरों से भी गहरी लगती है,
तो कभी हिमालय से भी उतुंग,
कभी उन लहरों की मस्तियों को समजकर तो देखो,
एक बार अकेलेपन की अंगड़ाई ले कर तो देखो ।

कभी खंजरों से भी नुकीली लगती है,
तो कभी पंखुड़ियों से भी कोमल,
कभी तो उस चुभन को महेसुस कर के देखो,
एक बार अकेलेपन की अंगड़ाई ले कर तो देखो ।

कभी ज़ोपडियो से भी ज्यादा अमीर लगती है,
तो कभी महलों से भी ज्यादा गरीब,
कभी उस दोगली अमीरी का चश्मा उतारकर तो देखो,
एक बार अकेलेपन की अंगड़ाई ले कर तो देखो ।

कभी अमावस्या से भी ज्यादा अंधकारमय,
तो कभी पूर्णिमा से भी ज्यादा तेजोमय,
कभी सितारों के उस पार देखने की कोशिश तो करो,
एक बार अकेलेपन की अंगड़ाई ले कर तो देखो ।

कभी गांवों से भी ज्यादा बेबस लगती है,
तो कभी शहरों से भी ज्यादा विचलित,
कभी उस मिट्टी की खुशबू में खो कर तो देखो,
एक बार अकेलेपन की अंगड़ाई ले कर तो देखो ।

कभी माँ की गोद सी मिठी लगती है,
तो कभी मतलबी रिश्तों से भी कड़वी,
कभी किसी बूढ़े हाथो का सहारा बन कर तो देखो,
एक बार अकेलेपन की अंगड़ाई ले कर तो देखो ।

कभी गुड़िया सी मासूम लगती है,
तो कभी लोमड़ी से भी चालाक,
कभी उन दोस्तों की नादानियों पर हँसकर तो देखो,
एक बार अकेलेपन की अंगड़ाई ले कर तो देखो ।

पता नहीं कभी कभी क्यों खुद को इतना अकेला पाता हूँ,
हजारों की भीड़ में भी सांसो को गिन पाता हूँ ।।।

– निसर्ग भट्ट

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