गुरुवार, 24 मार्च 2016

मन

न जाने किस उधेड़-बुन में रहता है..
ये मन हर दिन इक नई कहानी रचता है…

कभी वक़्ता तो कभी श्रोता है…
अपनी कहानी ख़ुद ही कहता है
और ख़ुद ही सुनता है…..

न जाने किस उधेड़-बुन में रहता है..
ये मन हर दिन इक नई कहानी रचता है…

साथ चलता है मेरे साथ,
मेरे ख़यालों का क़ाफ़िला…
रहता है फ़िराक़ में
इक अनजाने से सफ़र का..
इक अनदेखे चौराहे,
इक गली, इक डगर का…

न जाने किस उधेड़-बुन में रहता है..
ये मन हर दिन इक नई कहानी रचता है…

ऐसा होता, वैसा होता…
कब, क्यों और कैसा होता…
लगा रहता है अपने ही जोड़-गणित में…
ख़ुद ही क्या लिख लेता है,
क्या पढ़ लेता है…
कभी तो ख़ुद से रूठ जाता है..
तो कभी ख़ुद ही को मना लेता है..

न जाने किस उधेड़-बुन में रहता है..
ये मन हर दिन इक नई कहानी रचता है…

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