मंगलवार, 22 मार्च 2016

ZINDGI

ज़िंदगी

मालूम नहीं क्यूँ है तुझसे प्यार ज़िंदगी,
लेकिन मै कर रहा हूँ बेशुमार ज़िंदगी ||

रोज़ वही बातें है रोज़ वो ही किस्से ,
तू हो गयी है रोज़ का अखबार ज़िंदगी ||

कभी बिकता कभी खरीदता हर एक शख्स देखा,
तू रह गई है बनके एक बाजार ज़िंदगी ||

मौत मारती है बस एक आखिरी दिन ,
तू कर रही है रोज़ ही शिकार ज़िंदगी ||

लगने लगा है आजकल डर सा मुझे तुझसे ,
चेहरे को अपने थोड़ा तो संवार ज़िंदगी ||

कब से वही थमी सी खडी रह गई है तू,
कुछ तो बढ़ा तू अपनी रफ़्तार ज़िंदगी ||

कर ले तैयार जख्म कोई आज तू फिर से,
फिर आ रहा है मुझको कुछ करार ज़िंदगी ||

रो – रो के देना होगा तुझे फिर हिसाब इनका,
तूने ले रखी हैं खुशियाँ फिर उधार ज़िंदगी ||

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