ज़िंदगी
मालूम नहीं क्यूँ है तुझसे प्यार ज़िंदगी,
  लेकिन मै कर रहा हूँ बेशुमार ज़िंदगी ||
रोज़ वही बातें है रोज़ वो ही किस्से ,
  तू हो गयी है रोज़ का अखबार ज़िंदगी ||
कभी बिकता कभी खरीदता हर एक शख्स देखा,
  तू रह गई है बनके एक बाजार ज़िंदगी ||
मौत मारती है बस  एक आखिरी दिन ,
  तू कर रही है रोज़ ही शिकार ज़िंदगी ||
लगने लगा है आजकल डर सा मुझे तुझसे ,
  चेहरे को अपने थोड़ा तो संवार ज़िंदगी ||
कब से वही थमी सी खडी रह गई है तू,
  कुछ तो बढ़ा तू अपनी रफ़्तार ज़िंदगी ||
कर ले तैयार जख्म कोई आज तू फिर से,
  फिर आ रहा है मुझको कुछ करार ज़िंदगी ||
रो – रो के देना होगा तुझे फिर हिसाब इनका,
  तूने ले रखी हैं खुशियाँ फिर उधार ज़िंदगी ||

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