गुरुवार, 17 सितंबर 2015

एक गज़ल- इंसान की यहाँ

ज़िन्दगी ऐसी हो गई है इंसान की यहाँ |
जरुरत ही नहीं लगती श्मशान की यहाँ ||

नुमाइशों के लिये हैं ये मंदिर – मस्जिद ,
मन में नहीं है मूरत भगवान की यहाँ |

आपस में ही लड़ते हैं परिवार के सभी ,
जरुरत ही नहीं पड़ती अन्जान की यहाँ |

जिसे ये पालकर भेजता है कत्लखानों में
चीखें सुनेगा कौन उस बेजुबान की यहाँ |

ज़िन्दगी ऐसी हो गई है इंसान की यहाँ |
जरुरत ही नहीं लगती श्मशान की यहाँ ||

-padam shree

Share Button
Read Complete Poem/Kavya Here एक गज़ल- इंसान की यहाँ

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें