गुरुवार, 4 फ़रवरी 2016

घङी की सूईयां ......(रै कबीर)

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काश दौङा सकता उलटा
इन घङी की सुईयों को
और खींच लाता वो पल
फिर से, जब मिला
तुम्हारा आखिरी संदेश कि
तुमसे मिलकर अच्छा लगा और
अब अलविदा !!!
बस ! अलविदा ???
इतने समय से न तुमने
कोई खबर ली मेरी ,
और वो कसम अनंतकाल की ?
कितनी अफसोस की बात है
कुछ भी हमेशा के लिए
क्यों नहीं रह सकता ??
ऐसा क्या था जो तुम सिर्फ
अकेले करना चाहती थी ?
वैसे ये खाली घर भी
अद्भुत अहसास देता है,
हवा में लहराते पर्दे
और शांत पङा फर्नीचर ।
असल में मैं खुश हूँ
तो तुम्हारे लिए और
नहीं हूँ अगर
तो मेरे लिए ।
काश घङी की ये सूईयां
मैं उलटी दौङा सकता
और वो समय
फिर लौट आता, तब
अपने हालात बदलने की
हर कोशिश करता ।
लौट आता वो पल जब
हम रातभर साथ बैठते और
सुबह उगते सूरज को देखते ।
काश घङी को उलटा दौङाता
और वो हादसा न होता ।
लेकिन तब भी हम वहीं
होते , जहाँ आज हैं ।
तुम हो ना मेरे साथ
अनंतकाल तक ।
पर ये सच कङवा है कि
हमें खोना पङता है उन्हें,
जिन्हें हम जानते हैं ।
खोना पङता है कि
अहमियत उनकी पता चले ।
इसी हालात पर मैं क्रोधी हूँ
और कोसता रहता हूँ
अपनी किस्मत को ।
करता हूँ भरसक कोशिश
कि हमेशा रह सकूँ
तुम्हारी यादों के साथ ।
उस घङी को भी महसूस
करता हूँ ,जब मौत
आकर गले लगेगी,
पर न जाने क्यों वो
ईश्वर याद दिलाता है
कि खुशकिस्मत हूँ और
अभी तक जिंदा हूँ ।
जिंदा तो था साथ तुम्हारे
जब कसम खायी थी
अनंतकाल की ।
पर मेरा वही सवाल
कि अनंत कुछ नहीं ?
और तुम्हारा वही जवाब
कि मेरा प्यार है अनंत ।
जो बेअसर है इन
घङी की सुईयों से ।।
( रै कबीर )

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