शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

गीत-"छत्तीसगढ़ की माटी"-शकुंतला तरार

“छत्तीसगढ़ की माटी”

सप्त ऋषियों की धरा ये पावन संस्कृतियों की थाती है
प्रगति का सोपान जो गढ़ती छत्तीसगढ़ की माटी है
धानी आँचल वाली मेरी छत्तीसगढ़ महतारी है
सत्य, प्रेम, सद्भावना की जलती दीपक बाती है ||

1- नर्म हवाएं फूल खिलाएं घोर घटाएं जल बरसायें
झुक-झुक बादल प्रीत सजायें झींगुर झुरमुट गीत सुनाएँ
शस्य-श्यामला धरा ये पावन दुनिया करती गुणगान
सारा जग कहता है यही छत्तीसगढ़िया महान
स्वर्ग हो जिसके चरण तले जहां दुनिया शीश झुकाती है
प्रगति का सोपान जो गढ़ती छत्तीसगढ़ की माटी है ||

2- होती सभा जहां तारों की चन्दा पहरा लगवाये
ललित कलाएं भांति-भांति के कोयल पंचम राग सुनाये
हृदय की बंसी सुमधुर बाजे मनवा गावे यश गान
इन्द्रधनुषी रंगों में इसकी कैसी निराली शान
नदियाँ करतीं निनाद कलकल और मनोरम घाटी है
प्रगति का सोपान जो गढ़ती छत्तीसगढ़ की माटी है ||

3- चंदन माटी भूमि उर्वरा झरनों का ले दे संगीत
भिन्न-भिन्न भाषा-बोली से मनवा गाये मधुरम गीत
खपरों से उठाता है धुआं तब शबनम सी घुलती है थकन
रँग-बिरंगे पाखियों से तब झूम-झूम उठता उपवन
सुवा परेवां प्रीत निभाते सदियों की परिपाटी है
प्रगति का सोपान जो गढ़ती छत्तीसगढ़ की माटी है ||

धानी आँचल वाली मेरी छत्तीसगढ़ महतारी है
सत्य, प्रेम, सद्भावना की जलती दीपक बाती है ||
शकुंतला तरार रायपुर (छत्तीसगढ़)

Share Button
Read Complete Poem/Kavya Here गीत-"छत्तीसगढ़ की माटी"-शकुंतला तरार

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें