गुरुवार, 4 फ़रवरी 2016

कल्पना

तुम मेरी सोच हो,
मेरी कल्पना हो तुम l
तुम फूल हो मन्दिर का,
अँधेरी रात कि शमां हो तुम ll
तुम मेरी कविता हो
तुम नहीं तो कविता नहीं l
मेरे स्वप्नों का सवरूप हो तुम l
बहुत कुछ छुपा है तुम्हारे चहरे में,
पढ़ना चाहता हूँ इसे शुरू से अन्त तक l
और फिर दोहराना चाहता हूँ ll
तुम्हारी खुशियां तुम्हारे गम बाँटना चाहता हूँ l
यूँ तो स्वार्थी लोगों में शुमार होता है मेरा,
पर करना चाहता हूँ तुम्हारे लिए सब निस्बार्थ l
तुम मेरी रागिनी हो l
जंगल में देवदार की गूंज हो तुम,
जो करती है मार्गदर्शन, जब मैं कही भटक जाता हूँ l
तुम्हारा अक्स जगाता है मुझे,
जब मैं कही खो जाता हूँ ll
तुम मेरी परछाई हो,
मोर के पंख की पन्खुडी हो तुम,
जिसे हर कोई अपने स्वप्नों में सजाना चाहता है l
तुम एक अन-सुलझी पहेली हो,
जिसे हर कोई सुलझाना चाहता है ll
जंगल की मदमस्त हिरनी हो तुम,
जो डरती है भेड़ियो से पर फिर भी नाचती है l
शायद तुम क्षितिज हो,
यहाँ मिलते है धरती और आसमान l
पता नहीं में वहा पहुँच भी पाता हूँ या नहीं,
तुम जो भी हो, मेरी अंजली हो, मेरी कल्पना हो l
और मुझे अपनी कल्पना से प्यार है ll

संजीव कालिया

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