ये गीत रहेंगे अपनी धुन में
दर्द रहे या न रहे गुंजन में
  ये गीत रहेंगे अपनी धुन में
चाहे मौसम आकाश बदल दे
  या फूलों का श्रृंगार बदल दे
  या शूलों का संस्कार बदल दे
  धर्म कर्म के आधार बदल दे
ये मुक्त रहेंगे हर बंधन में
  ये गीत रहेंगे अपनी धुन में
भरना चाहे दुख सारी कटुता
  गर गीतों के मीठे गुंजन में
  पर पल भर ही तेरी वाणी भी
  स्वर भर जावे मेरे क्रन्दन में
तो आँसू से तर इस माटी में
  ये गीत रहेंगे अपनी धुन में
कठोर काल-चक्र में उलझा गर
  यह जीवनक्रम भी थम थम जावे
  या वीरानेपन की चीत्कारें
  कोलाहल में धिर मिट मिट जावें
फिर भी चुप ना होंगे चिंतन में
  ये गीत रहेंगे अपनी धुन में
क्वारी माटी घट बन जब संवरी
  जाने किस कारण कब फूट गयी
  बूढ़ी, बरगद-सी, यादें सारी
  शुष्क डाल-सी सब चटक गयी
गंध रहे या न रहे चंदन में
  ये गीत रहेंगे अपनी धुन में
महल बने सपनों का अति सुन्दर
  जाने कब यह भी ढ़ह ढ़ह जावे
  औ तपस्विनी प्यारी कुटिया भी
  इस जग में बन दूषित रह जावे
मिल जावे विष भी गर चुम्बन में
  ये गीत रहेंगे अपनी धुन में
फूलों की मधु मुस्कानें भी सब
  घुल शबनम में आँसू बन जावें
  या वसंत का श्रृंगार मिटाने
  डाल डाल पर बस काँटे उभरें
साथ भ्रमर के इस मन उपवन में
  ये गीत रहेंगे अपनी धुन में
विषकन्या-सी बनकर यह काया
  चाहे प्राणों को विष ही दे दे
  चाहे प्याला मधुशाला का भी
  अपने में कुछ विष भर कर दे दे
पर चरणामृत पाने की धुन में
  ये गीत रहेंगे अपनी धुन में।
  —-      ——-     —-      भूपेंद्र कुमार दवे
  00000

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें