मंगलवार, 12 मई 2015

ये कैसी हवा चली है?

जिसमें उड़ कर न गगन मिले
न जमीं पर ही ठहरे कदम।
बिखरे बचपन बारिश बन
जिसमें जवानी धुएं के दम।

ये कैसी हवा चली है?

मर्यादाओं के पर्दे उतरे
घुट रहा दम क्षण-क्षण।
दुशासन का हृदय रो रहा
कर लूँ कैसे अब चीरहरण?

ये कैसी हवा चली है?

शृंगार कैद में तड़प रहा
परिवर्तित ये कैसा रूप किया?
दर्पण में जब स्वयं को देखा
भयभीत बड़ा प्रतिरूप किया।

ये कैसी हवा चली है?

गुलशन ने कलियों को कुचला
भंवरा मुँह को ताक रहा।
मजबूरी को देकर आसरा
कोई बुरी नियत से झांक रहा।

ये कैसी हवा चली है?

रिश्तों के दर दरक रहे हैं
अपनत्व दौलत संग खेल रहा।
झुरिंयों को चिढ़ कर छोड़ा
रक्त का ये कैसा मेल रहा?

ये कैसी हवा चली है?

विलक्षण प्रतिभा व्याकुल है
क्यूँ विलुप्त हो रहीं विशेषतायें?
लक्ष्य रेंग रहा घुटनों के बल
विवश हो रहीं सब आशाएं।

ये कैसी हवा चली है?

प्रताड़नाएं प्रसन्नचित हुई
शक्ति कुचल दी गई पग तले।
अबला को सबला कहा तो
अहम का क्यूँ रग-रग जले?

ये कैसी हवा चली है?

न नन्ही ख़ुशी ने दुनिया देखी
ममता कष्टों को सह रही।
नौ माह की जिंदगी क्यूँ
कोख में ही खत्म हो रही।

ये कैसी हवा चली है?

ये कैसा बाजार लगा है?
प्रीत बिक रही गलियों में।
राधा निकली श्याम ढूढ़ने
मगर घिरी है छलियों में।

ये कैसी हवा चली है?

समय चक्र निरंतर गति में
साहस ही संग में चल पाये।
मगर देख कर लगता है कि
हम कुछ ज्यादा तेज निकल आये।

ये कैसी हवा चली है?

वैभव”विशेष”

Share Button
Read Complete Poem/Kavya Here ये कैसी हवा चली है?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें