पलकों पर रखता हूँ तुझे
  एक तस्वीर नकाब में
  छू ना ले वो कांटे तुझे
  जो है मेरे लिहाफ में 
वो लौटा ना था क्या करूँ
  एक दिन का हिसाब मै
  उम्र भी गुजार दूँ  साथी
  सज़दे नायाब में
नासबूर समझा क्या मुझे
  जो उज़ड़ा नौबहार में
  निराली सी  एक नज्म थी
  वो मेरे लिहाज़ में 
दिल करता एक नामा लिखूं
  नुमाईश पर उसकी
  इफ़्रात इतना कैसे लिखूं
  फ़क्त एक किताब  में
रात भर  बैठा मैं रहा
  उसके  इन्तजार में
  धुआं भी तो उठता नहीं
  चाहतों के चिराग  में 
तेरे  नाम  पर बंद होती जुबाँ
  दूँ किस किस को जवाब मैं
  तुझसे कोई नाता न था तो क्या
  मुस्कुराता  मैं ख़्वाब में  

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