सुबकर भी मुस्कुरा लेती है
  सिसकियाँ उसकी कमाल की हैं
  शायद रोई है बहुत वो
  आँखें उसकी लाल सी हैं 
मासूम संतान को देखा
  घर के  बाहर  खड़ी है
  पुछा तो बोले आज
  मम्मी को मार पड़ी है 
ये मर्दों की जात अनोखी
  अहम से बीमार अकड़ी हुई
  ये बचपन के सपनो की क्यारी
  कुम्लाई ,डरी, उजड़ी हुई 
पौंछकर सारे आँशू अपने
  हल्का सा मुस्कुरा देती है
  समेट कर बच्चों को दामन में
  घावों को भुला देती है 
शाम होते ही उठती हैं चीखे
  गुज़रती रात घर के कोने में
  गूंजते हैं बर्तन घर के
  दिन रोज़ रोने धोने में    
रिश्तों की अर्थी पर लेटी
  जिन्दा बिसात बिखरी हुई
  घरेलू हिंसा में पिसती मेरी
  पड़ोसन बेचारी टूटी हुई 

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