गुरुवार, 21 मई 2015

घरेलू हिंसा

सुबकर भी मुस्कुरा लेती है
सिसकियाँ उसकी कमाल की हैं
शायद रोई है बहुत वो
आँखें उसकी लाल सी हैं

मासूम संतान को देखा
घर के बाहर खड़ी है
पुछा तो बोले आज
मम्मी को मार पड़ी है

ये मर्दों की जात अनोखी
अहम से बीमार अकड़ी हुई
ये बचपन के सपनो की क्यारी
कुम्लाई ,डरी, उजड़ी हुई

पौंछकर सारे आँशू अपने
हल्का सा मुस्कुरा देती है
समेट कर बच्चों को दामन में
घावों को भुला देती है

शाम होते ही उठती हैं चीखे
गुज़रती रात घर के कोने में
गूंजते हैं बर्तन घर के
दिन रोज़ रोने धोने में

रिश्तों की अर्थी पर लेटी
जिन्दा बिसात बिखरी हुई
घरेलू हिंसा में पिसती मेरी
पड़ोसन बेचारी टूटी हुई

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