शुक्रवार, 29 मई 2015

वे आखें

अंधकार की गुहा सरीखी
उन आंखों से डरता है मन,
भरा दूर तक उनमें दारूण
दैन्य दुःख का नीरव रोदन!

वह स्वाधीन किसान रहा,
अभिमान भरा आंखों में इसका
छोड़ उसे मंझधार आज
संसार कगार सदृश बह खिसका!

लहराते वे खेत दृगों में
हुआ बेदखल वह अब जिनसे,
हंसती थी उसके जीवन की
हरियाली जिनके तृन-तृन से!

आंखों ही में घूमा करता
वह उसकी आंखों का तारा,
कारकुनों की लाठी से जो
गया जवानी ही में मारा!

बिका दिया घर द्वार
महाजन ने न ब्याज की कौड़ी छोड़ी,
रह-रह आंखों में चुभती वह
कुर्क हुई बरधों की जोड़ी!

उजरी उसके सिवा किसे कब
पास दुहाने आने देती?
अह, आंखों में नाचा करती
उजड़ गई जो सुख की खेती!

बिना दवा दर्पन के घरनी
स्वरग चली-आंखें आतीं भर,
देख-रेख के बिना दुध मुंही
बिटिया दो दिन बाद गई मर!

घर में विधवा रही पतोहू
लछमी थी, यधपी पति घातिन,
पकड़ मंगाया कोतवाल ने,
डूब कुएं में मरी एक दिन!

खैर, पैर की जूती, जोरू
न सही एक, दूसरी आती,
पर जवान लड़के की सुध कर
सांप लोटते, फटती छाती।

पिछले सुख की स्मृति आंखों में
क्षण भर एक चमक है लाती,
तुरत शून्य में गड़ वह चितवन
तीखी नोक सदृश बन जाती।

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